किसी केस में बच्चे की गवाही मानी जाएगी या कर सकते हैं खारिज? सुप्रीम कोर्ट ने क्या सुनाया फैसला
- जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि साक्ष्य अधिनियम में गवाह के लिए कोई न्यूनतम उम्र निर्धारित नहीं की गई है। बाल गवाह की गवाही, जिसे गवाही देने में सक्षम पाया जाता है, साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होगी।
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सुप्रीम कोर्ट ने किसी मामले में छोटे बच्चों की गवाही को लेकर अहम फैसला सुनाया है। उसने कहा कि बाल गवाह एक 'सक्षम गवाह' होता है और उसके साक्ष्य को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता। इसी के साथ शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज करते हुए एक व्यक्ति को सुनाई गई उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि साक्ष्य अधिनियम में गवाह के लिए कोई न्यूनतम उम्र निर्धारित नहीं की गई है। बाल गवाह की गवाही, जिसे गवाही देने में सक्षम पाया जाता है, साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होगी।
पति की ओर से एक महिला की हत्या से जुड़े मौजूदा मामले में पीठ ने कहा कि रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो यह दर्शाता हो कि पीड़ित की बेटी एक प्रशिक्षित गवाह थी। अदालत ने कहा, ‘अदालतों के सामने अक्सर ऐसे मामले आते हैं जहां पति तनावपूर्ण वैवाहिक संबंधों और चरित्र के बारे में संदेह के कारण पत्नी की हत्या करने की हद तक चले जाते हैं।’ पीठ ने कहा कि इस तरह के अपराध आम तौर पर घर के अंदर पूरी गोपनीयता के साथ किए जाते हैं और अभियोजन पक्ष के लिए साक्ष्य पेश करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
'गवाही से पहले होनी चाहिए जांच'
पीठ ने कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के अनुसार, किसी बाल गवाह का साक्ष्य दर्ज करने से पहले अधीनस्थ अदालत की ओर से प्रारंभिक जांच की जानी चाहिए। ताकि, यह पता लगाया जा सके कि क्या गवाह साक्ष्य देने की पवित्रता और उससे पूछे जा रहे सवालों के महत्व को समझने में सक्षम है। सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार की ओर से जून 2010 में उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर अपना फैसला सुनाया।
आखिर क्या था यह मामला
एचसी ने 2003 में एक महिला की हत्या के आरोपी व्यक्ति को बरी कर दिया था। फैसले में कहा गया कि पीड़िता की बेटी (जो घटना के समय 7 साल की थी) गवाही देने में सक्षम पाई गई, लेकिन उसकी गवाही बहुत कमजोर प्रतीत हुई। खासकर पुलिस के सामने उसका बयान दर्ज करने में 18 दिन की देरी हुई थी। शीर्ष अदालत ने अपील स्वीकार कर ली और उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज कर दिया। इसने नीचली अदालत के उस फैसले को बहाल कर दिया जिसमें व्यक्ति को दोषी ठहराया गया था और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। पीठ ने उसे सजा भुगतने के लिए चार सप्ताह के भीतर न्यायालय के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया।