विपक्ष ही नहीं, साथी भी पड़े थे पीछे; फिर भी मनमोहन ने अमेरिका से करवा लिया परमाणु समझौता
- 2008 का भारत-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर समझौता भारतीय इतिहास में ऊर्जा सुरक्षा और कूटनीतिक संबंधों के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ।
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भारत के इतिहास में जब भी आर्थिक सुधार और परमाणु समझौते की बात होगी, मनमोहन सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। एक शांत, सौम्य और दृढ़ व्यक्तित्व, जिन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता और संकल्प से भारत को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। 1991 में, जब भारत आर्थिक संकट से जूझ रहा था, मनमोहन सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में वित्त मंत्री के रूप में देश की आर्थिक नीतियों में ऐतिहासिक सुधार किए। उनके द्वारा पेश किए गए बजट ने उदारीकरण की नींव रखी और भारतीय अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी। उनकी प्रसिद्ध पंक्ति, "कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है," आज भी प्रेरणा देती है।
प्रधानमंत्री के रूप में दूरदर्शी नेतृत्व
2004 में प्रधानमंत्री बनने के बाद, मनमोहन सिंह ने अपनी दूरदर्शिता से भारत की विदेश नीति को नया आयाम दिया। सबसे उल्लेखनीय उनकी अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु समझौते को आगे बढ़ाने की कोशिश रही। इस समझौते ने भारत को "परमाणु बहिष्कृत" से "जिम्मेदार परमाणु शक्ति" के रूप में मान्यता दिलाई। यह उनके दृढ़ और साहसी नेतृत्व का परिचायक है।
परमाणु समझौता: एक बड़ी उपलब्धि
2008 का भारत-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर समझौता भारतीय इतिहास में ऊर्जा सुरक्षा और कूटनीतिक संबंधों के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। यह समझौता भारत को अपनी परमाणु ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए अमेरिका से सहयोग प्राप्त करने का रास्ता खोलता है, जो कि दशकों से प्रतिबंधित था। हालांकि, यह समझौता जितना कूटनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था, उतना ही घरेलू राजनीति में विवादास्पद भी रहा। मनमोहन सिंह ने इस समझौते के लिए विरोध का सामना किया। वामपंथी दलों ने इसे लेकर कड़ी आपत्ति जताई और समर्थन वापस ले लिया। लेकिन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के सहयोग और समाजवादी पार्टी के बदले रुख ने सरकार को विश्वास प्रस्ताव जीतने में मदद की। यह समझौता भारत-अमेरिका संबंधों को मजबूत करने और भारत के ऊर्जा क्षेत्र को नई तकनीक देने का द्वार बना।
क्या था यह समझौता?
यह समझौता भारत और अमेरिका के बीच सिविल न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी और ईंधन के आदान-प्रदान का एक समझौता था। इसके तहत, भारत को अपने नागरिक परमाणु कार्यक्रम के लिए तकनीकी सहायता और परमाणु ईंधन की आपूर्ति की अनुमति दी गई, जबकि भारत ने अपने परमाणु प्रतिष्ठानों को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की निगरानी के तहत रखने का वादा किया।
भारत ने 1974 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद से परमाणु आपूर्ति समूह (NSG) की पाबंदियों का सामना किया था। यह समझौता NSG से भारत के लिए विशेष छूट दिलाने का मार्ग प्रशस्त करता था। इसके तहत भारत ने अपने सैन्य और नागरिक परमाणु कार्यक्रम को अलग-अलग करने और परमाणु अप्रसार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई।
भारत में राजनीतिक विवाद
जब इस समझौते को अंजाम देने की बात आई, तो भारत की घरेलू राजनीति में बड़ा बवाल खड़ा हो गया।
वामपंथी दलों का विरोध:
मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को वामपंथी दलों का समर्थन प्राप्त था। वामपंथी दलों ने आरोप लगाया कि यह समझौता भारत की संप्रभुता से समझौता करेगा और भारत को अमेरिका की विदेश नीति का अनुयायी बना देगा। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यह समझौता भारत की गैर-गठबंधन नीति के विरुद्ध है।
भाजपा का विरोध:
विपक्ष में मौजूद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी इस समझौते का विरोध किया। भाजपा ने कहा कि इस समझौते से भारत की रणनीतिक स्वायत्तता खतरे में पड़ सकती है। उन्होंने यूपीए सरकार पर आरोप लगाया कि वह अमेरिकी दबाव में काम कर रही है।
संसद में विश्वास मत:
वाम दलों ने इस मुद्दे पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद जुलाई 2008 में संसद में विश्वास मत लाया गया। इस दौरान यह आरोप भी लगाए गए कि सरकार ने विश्वास मत जीतने के लिए सांसदों को रिश्वत दी।
मनमोहन सिंह का नेतृत्व और दृढ़ता
इस पूरे प्रकरण में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नेतृत्व और उनकी दृढ़ता प्रशंसनीय रही। उन्होंने अमेरिका के साथ इस समझौते को भारत की ऊर्जा जरूरतों के लिए आवश्यक बताया और इसे "भारत की ऊर्जा स्वतंत्रता के लिए मील का पत्थर" करार दिया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह समझौता भारत की रणनीतिक स्वायत्तता से समझौता नहीं करेगा। संसद में विश्वास मत जीतने के बाद, मनमोहन सिंह ने न केवल राजनीतिक संकट को टाला, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को भी मजबूत किया। अमेरिका के साथ यह समझौता उनके कार्यकाल की प्रमुख उपलब्धियों में गिना जाता है।
नतीजे और प्रभाव
यह समझौता भारत के ऊर्जा क्षेत्र में महत्वपूर्ण बदलाव लाया। परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश और विकास को बढ़ावा मिला। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में मान्यता मिली। भारत-अमेरिका संबंधों में यह समझौता एक मजबूत आधार साबित हुआ। हालांकि, इस समझौते से जुड़े विवाद और राजनीतिक संघर्ष आज भी भारतीय राजनीति में चर्चा का विषय हैं। यह समझौता भारतीय कूटनीति और घरेलू राजनीति के बीच संतुलन साधने का एक अनोखा उदाहरण है।
आर्थिक संकट के बीच मजबूती का परिचय
2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के समय, मनमोहन सिंह ने भारत को संकट से बाहर निकाला। उनके प्रयासों को मध्यम वर्ग ने 2009 के लोकसभा चुनावों में सराहा। कांग्रेस ने 2004 की तुलना में 61 सीटें अधिक जीतीं, और मनमोहन सिंह का नेतृत्व जनता के बीच "सिंह इज किंग" के रूप में गूंजा।
यू.पी.ए. II: चुनौतियों भरे साल
दूसरी बार सत्ता में आने के बाद, मनमोहन सिंह को घोटालों और नीतिगत ठहराव का सामना करना पड़ा। हालांकि, उन्होंने मनरेगा जैसी क्रांतिकारी योजनाएं लागू कीं, जिससे ग्रामीण भारत को लाभ हुआ। इसके बावजूद, सरकार की छवि पर धब्बा लगा और जनता के बीच संवाद की कमी ने उनके कार्यकाल को प्रभावित किया।
एक सच्चे नेता की विरासत
मनमोहन सिंह का जीवन इस बात का उदाहरण है कि सच्चा नेतृत्व शांत और स्थिर होते हुए भी बड़ा प्रभाव डाल सकता है। उन्होंने न केवल भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत आधार दिया, बल्कि विदेश नीति में भी भारत को नई पहचान दिलाई। उनका योगदान आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बना रहेगा।