इंडिया ब्लॉक की इतिकथा
- कांग्रेस अब जिस तरीके से जातीय जनगणना के बहाने पिछडे़ वर्ग को आंदोलित करना चाह रही है, उससे अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और एम के स्टालिन जैसे सहयोगियों के भी कान खडे़ हो सकते हैं…
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दिल्ली के चुनाव परिणाम आने से पहले ही सवाल उठ चला था कि क्या ‘इंडिया’ ब्लॉक खुद अपनी इतिकथा लिख रहा है? इस सियासी गठबंधन के पुराने कमिसार और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने मतदान-पूर्व मांग बुलंद की थी कि दिल्ली चुनाव के बाद ब्लॉक के सभी सहयोगी एक साथ जुटें और फैसला करें कि आगे उन्हें साथ कैसे चलना है? वह दिल्ली में आप और कांग्रेस के आमने-सामने हो जाने से आहत थे। उनकी आशंकाएं सच साबित हुईं।
अब इस ब्लॉक का अगला इम्तिहान बिहार में होना है। वहां अक्तूबर-नवंबर में चुनाव हैं।
बताने की जरूरत नहीं कि तेजस्वी यादव की अगुवाई वाला राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस दशकों से साथ चुनाव लड़ते आए हैं। इसके बावजूद इस सबल क्षेत्रीय दल के कर्ताधर्ता अक्सर ठंडी सांस भरकर कहते हैं, काश! 2020 के विधानसभा मतदान से पूर्व हमने कांग्रेस को इतनी सीटें न दी होतीं! उस चुनाव में कांग्रेस ने जबरदस्त मोलभाव के जरिये 70 निर्वाचन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारने में कामयाबी हासिल कर ली थी। इनमें से मात्र 19 पर जीत हासिल हो सकी। अंतिम नतीजों के अनुसार, तेजस्वी यादव महज 13,000 वोट और 12 सीट से पीछे रह गए थे।
अगर राजद और वामदलों के कंधे पर सवार कांग्रेस अपने इन सहयोगियों के समान परिणाम देती, तो ऐसा न होता।
वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हारने के बाद समाजवादी पार्टी के पुरोधा भी यही रंज जताते पाए जाते थे। इससे एक वर्ष पूर्व तमिलनाडु में यही दुखांत दोहराया गया था। नतीजतन, द्रविड़ मुनेत्र कषगम ने वर्ष 2021 में हुए अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की लगभग 40 फीसदी सीटें काट लीं। क्या अब बिहार में तेजस्वी यादव इसी फॉर्मूले पर काम करेंगे? यदि ऐसा होता है, तो यह कांग्रेस के लिए बुरी खबर होगी। एक के बाद एक राज्य गंवाती कांग्रेस को अब हिमाचल, तेलंगाना और कर्नाटक के अलावा सिर्फ अपने सहयोगियों का सहारा रह बचा है। झारखंड और तमिलनाडु इसका सबल उदाहरण हैं।
तय है, देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने बलबूते चुनाव जीतने की ताकत गंवाती जा रही है।
कांग्रेस के दोस्तों को यह सुनकर बुरा लग सकता है, पर उन्हें अपने चिर प्रतिद्वंद्वी भाजपा से सबक लेना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी ने कई राज्यों में बरसों तक अपने दोयम दर्जे से गिला किए बिना चुनाव-दर-चुनाव मनचाही मंजिल हासिल की है। खुद बिहार इसका उदाहरण है। भारतीय जनता पार्टी के पास अधिक विधायक होने के बावजूद बरसों से उसने नीतीश कुमार को गठबंधन का नेता मान रखा है। यहां याद दिलाना जरूरी है कि इन्हीं नीतीश कुमार को कांग्रेस ने पिछले लोकसभा चुनाव से पूर्व इंडिया ब्लॉक का संयोजक नहीं बनने दिया था। नाराज नीतीश एक बार फिर भाजपा के पाले में जा खडे़ हुए थे। इससे नुकसान किसका हुआ? सिर्फ कांग्रेस और इंडिया का।
महाराष्ट्र का मामला भी कुछ ऐसा ही है। शिवसेना भारतीय जनता पार्टी की सबसे पुराने साथियों में एक थी। 2019 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपने सहयोगी से अधिक सीटें हासिल की थीं। जाहिर है, मुख्यमंत्री की कुर्सी पर इस बार भारतीय जनता पार्टी का हक था, जबकि उद्धव ठाकरे का मानना था कि भाजपा को यह सफलता शिवसेना के लंबे साथ की वजह से मिली है। वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपना अधिकार जता रहे थे। बदले हालात में भगवा दल को यह स्वीकार्य नहीं था। आगे क्या हुआ, सब जानते हैं। उद्धव चिर-प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ सरकार गठित करने में कामयाब तो रहे, पर एवज में अपनी पार्टी और प्रतिष्ठा गंवा बैठे।
वजह? शिवसेना के पुराने काडर को कांग्रेस का साथ मंजूर नहीं था। उद्धव समय रहते इस विक्षोभ को सम्हाल न सके और उनकी पार्टी में जबरदस्त बगावत हो गई। बगावतियों के नेता एकनाथ शिंदे को भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी तोहफे में दी। इस राजनीतिक कवायद के कर्ताधर्ता देवेंद्र फडणवीस को अधिक विधायक बल के बावजूद उप-मुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा। उनकी पार्टी ने उनके इस कर्तव्य-भाव को याद रखा। हालिया विधानसभा चुनावों के बाद शिंदे मुंह फुलाते रह गए, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर देवेंद्र फडणवीस को सत्ता की कमान सौंप दी। शिंदे अब उनकी सरकार में उप-मुख्यमंत्री हैं।
कांग्रेस के लिए यह चुनाव बड़ा अवसर था। लेकिन उसने गत महाराष्ट्र चुनाव में न केवल उद्धव को मुख्यमंत्री मानने से इनकार कर दिया, बल्कि अधिक सीट हथियाने के लिए बखेडे़ किए। इससे मतदाता के समक्ष गठबंधन की साख और पवार-ठाकरे जोड़ी के प्रति उमड़ी सहानुभूति समाप्त हो गई। यह उद्धव ठाकरे और शरद पवार के साथ अन्याय था। कोई भरोसा नहीं कि आने वाले दिनों में महाराष्ट्र से अलगाव की खबरें सुनाई पड़ने लगें।
अरविंद केजरीवाल भी चाहते थे कि गुजरात के चुनाव में कांग्रेस उनका साथ दे। उन्होंने लंबे समय तक माकूल जवाब का इंतजार किया, पर जवाब अधर में ही लटका रहा। नतीजा सामने है। आम आदमी पार्टी ने 13 फीसदी के करीब मत हासिल किए, जो सीधे तौर पर कांग्रेस की झोली से सरके थे। तय है, आप का वजूद कांग्रेस की कीमत पर खड़ा हुआ था।
इंडिया ब्लॉक बनने के बाद आम आदमी पार्टी को उम्मीद थी कि बदले हालात में हरियाणा विधानसभा चुनाव में उसे समुचित महत्व हासिल होगा, लेकिन यहां भी गुजरात-गाथा दोहराई गई। यही वजह है कि अरविंद केजरीवाल ने बिना कांग्रेस से दरयाफ्त किए दिल्ली में अपने उम्मीदवार उतार दिए। इस बार कांग्रेस ने वही भूमिका अदा की, जो कभी केजरीवाल ने हरियाणा और गुजरात में निभाई थी। आप मात्र दो प्रतिशत मतों से भाजपा से पीछे रह गई, जबकि कांग्रेस ने अपने मत प्रतिशत में दो फीसदी के करीब का इजाफा किया। यह दो फीसदी मत यदि कांग्रेस-आप के गठबंधन को मिले होते, तो आज न केवल दिल्ली की कहानी कुछ और होती, बल्कि इंडिया ब्लॉक को भी मजबूती मिलती।
सवाल उठता है, कांग्रेस अपने अतीतजीवी अभियान को सियासी संगी-साथियों की कीमत पर कब तक सहलाती रहेगी?
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अपनी क्षेत्रीय इकाइयों पर केंद्रीय नेतृत्व की समुचित पकड़ नहीं है। चर्चा है कि राहुल गांधी हरियाणा और गुजरात में आम आदमी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहते थे। वह दिल्ली में भी समझौते के पक्षधर थे, परंतु वहां की प्रांतीय इकाइयों को लगता था कि कांग्रेस अपने बूते पर बेहतर करेगी। चुके हुए जनाधार और थके हौसलों वाले उसके परिवारवादी क्षत्रप तर्क भले लच्छेदार दें, लेकिन उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसक चुकी है। यही नहीं, कांग्रेस अब जिस तरीके से जातीय जनगणना के बहाने पिछडे़ वर्ग को आंदोलित करना चाह रही है, उससे अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और एम के स्टालिन जैसे सहयोगियों के भी कान खडे़ हो सकते हैं। आखिर इसी वोट बैंक पर तो वे अब तक अपनी सियासत की इमारत खड़ी करते आए हैं।
कांग्रेस आजाद भारत में अब तक के सबलतम प्रतिद्वंद्वी मोदी और शाह से मुकाबिल है। हर हार के बाद उसके चाहने वाले पूछते हैं कि वह कब सुधरेगी, लेकिन इस प्रश्न का उत्तर तो शायद कांग्रेस के कर्णधारों के पास भी नहीं है।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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