मुरादाबाद के बहाने एक विमर्श
उस दिन हम मुरादाबाद में थे। यहां चक्कर लगाने पर वह सब कुछ मिला, जो उत्तर भारत के अव्यवस्थित शहरों में होता है- धूल, धुआं, गड्ढों से भरी सड़कें, ट्रैफिक जाम और जबरदस्त बेतरतीबी। अगर दृश्य से कुछ नदारद...
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उस दिन हम मुरादाबाद में थे। यहां चक्कर लगाने पर वह सब कुछ मिला, जो उत्तर भारत के अव्यवस्थित शहरों में होता है- धूल, धुआं, गड्ढों से भरी सड़कें, ट्रैफिक जाम और जबरदस्त बेतरतीबी। अगर दृश्य से कुछ नदारद था, तो पीतल। पूरी दुनिया इंसानी बसावट की इस भौगोलिक इकाई को पीतल नगरी के रूप में जानती है। जिस उद्योग पर शहर को नाज होना चाहिए, उसकी ऐसी बेकदरी!
जेहन में इस्पात नगरी जमशेदपुर उभर आई। जमशेदजी नौशेरवान जी टाटा ने सन् 1907 में इसे बसाया था। पठारों, जंगलों और सुवर्णरेखा नदी के किनारों से घिरी इस बीहड़ सरजमीं को उन्होंने एक व्यवस्थित औद्योगिक शहर की तरह स्थापित किया। आज भी वहां जाकर उनकी दृष्टि और सोच पर नाज होता है। पीतल का उद्योग उससे कम पुराना नहीं है। यहां 1915 में पहला कारखाना लगा था। क्या जमशेदजी जैसे ‘विजन’ वाले लोगों के बिना औद्योगिक शहर नहीं बन सकते?
ऐसा नहीं है। आप भिलाई या बोकारो को देख लीजिए। सरकार ने कभी इसे बनाया या बसाया था। जन-प्रतिनिधियों की स्वार्थी दखलंदाजी के बावजूद उनकी मूल आत्मा कायम है। यह भी सच है कि राजनेताओं की इच्छाशक्ति से बदशक्ल होते पुराने शहर भी खूबसूरत हो जाते हैं। इसी प्रदेश में बनारस है। प्रधानमंत्री ने काशी को चुना या काशी ने प्रधानमंत्री को, अथवा दोनों ने एक-दूसरे को, पर यह सोलहों आने सच है कि पिछले सात सालों में संसार की सबसे प्राचीन नगरी मानते हुए खुद पर इठलाने वाली काशी की सूरत और सीरत तेजी से बदली है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर को ऐसे ही संवारा है। कभी इटावा पर मुलायम सिंह और नोएडा पर मायावती का करम हुआ करता था। ये शहर बदलने शुरू हुए, तो बदलते चले गए। मुरादाबाद का दुर्भाग्य कि उसे ऐसे जन-प्रतिनिधि नहीं मिले।
उदाहरण तो बगल में बसे रामपुर का भी दिया जा सकता है। आजम खां ने इसे सजाने-संवारने में कसर न छोड़ी। उनकी नीयत भले ही अच्छी रही हो, पर अति उत्साह में शायद कुछ गलतियां हो गईं। आज वह जेल में हैं। काशी विश्वनाथ कॉरीडोर बनाने के लिए भी तोड़फोड़ करनी पड़ी थी, पर वहां सलीके और समन्वय से काम किया गया। परिणाम सामने है। काशी का सबक है, जनता की भलाई के लिए भी जनता को साथ लेकर चलना जरूरी है। मुरादाबाद में दोनों का अभाव देखने को मिलता है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के अधिकांश शहर इसी अभिशाप के मारे हैं। मैं यहां मुरादाबाद का जिक्र सिर्फ उदाहरण के तौर पर कर रहा हूं।
कहते हैं न कि लोकतंत्र में प्रजा अपने जैसा ही शासक चुनती है। मुरादाबाद में घूमने पर आप पाएंगे कि अपनी बदहाली पर लोगों के बीच कोई कसमसाहट देखने को नहीं मिलती। वे जिस हाल में हैं, उसी में खुश हैं। धर्म और जाति के मुद्दे उन्हें व्यस्त रखते हैं। हालांकि, यहां के लोगों को यह रटा हुआ है कि मुरादाबाद में ढाई हजार से अधिक ऐसी फैक्टरियां हैं, जिनका माल दुनिया के तमाम मुल्कों के बाजारों में बिकता है। इसके साथ ही 39 हजार छोटे अथवा बीच के कारखाने हैं। इनके जरिये लगभग तीन लाख कामगारों का जीवन चलता है। करीब चार लाख लोग सीधे तौर पर हैंडीक्राफ्ट उत्पादों के निर्माण और निर्यात से जुडे़ हैं। यह संख्या शहर की आबादी का लगभग पचास फीसदी है। कमाल यह कि इसके बावजूद पीतल या हस्तशिल्प चुनाव में कोई मुद्दा नहीं।
ऐसा भी नहीं है कि इनसे जुडे़ लोग और उनके परिवारीजन बहुत संतुष्ट हैं। कोरोना की मार ने उन्हें सीधे तौर पर प्रभावित किया है। महामारी से पहले यहां से 9,000 करोड़ रुपये का सालाना निर्यात होता था। भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ यह भी लड़खड़ाया और अब संभलने की तमाम कोशिशों के बावजूद अभी तक 7,000 करोड़ रुपये पर अटका हुआ है। पीतल उद्योग से जुड़ा घरेलू कारोबार भी करीब 6,000 करोड़ रुपये का है। सवाल उठता है कि यहां के जन-प्रतिनिधियों को संसद और विधानमंडलों में इस पर पूरी ताकत से आवाज उठाने की जरूरत अब क्यों नहीं महसूस हुई? यहां यह जान लेना जरूरी है कि वित्तीय वर्ष 2020-21 में भारत के कुल हस्तशिल्प निर्यात में 44 फीसदी की हिस्सेदारी मुरादाबाद के उत्पादों की है। उत्तर प्रदेश में तो यह भागीदारी बढ़कर 64 फीसदी तक पहुंच जाती है। प्रदेश सरकार ने ‘ओडीओपी’ के तहत पीतल को भी दम-दिलासा देने की घोषणा की थी। कुछ काम हुआ, पर अभी लंबा रास्ता तय करना शेष है। दशकों की उपेक्षा दो-चार साल में खत्म नहीं होती।
चुनावी नब्ज को जानने-समझने की जुगत में उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के गांव, गली और मुहल्लों में विचरते हुए एक और प्रवृत्ति जोर पकड़ती दिखी। नए राजमार्गों और बाईपास के निर्माणों ने वर्गभेद की खाई चौड़ी कर दी है। शहर के विस्तार के साथ ही आर्थिक सामर्थ्य रखने वाले लोग नई और खुली रिहाइश को चुन लेते हैं। पीछे रह बचे लोगों के हिस्से में अब पहले के मुकाबले आधा-तिया विकास रह बचता है। नगर प्रशासन से जुड़ी इकाइयों की नजर भी इन पर बाद में पड़ती है। जन-प्रतिनिधि जब ‘बिल्डर्स’ के साझीदार बन गए हों, तब इसके अलावा क्या उम्मीद की जा सकती है?
इसका सर्वाधिक शिकार कामगार और उनका पुराना शिल्प बनता है। मुरादाबाद का पीतल तो तब भी ‘पैसा’ देता है, पर मेरठ के हैंडलूम, बरेली की जरी, अलीगढ़ की गलियों में बनने वाले तालों, आगरा के पेठे और इन जैसे पारंपरिक उद्योगों पर संकट का साया गहरा रहा है। कमाल तो यह है कि इनसे एक मुकम्मल आबादी जुड़ी हुई है। वे ‘वोट बैंक’ हैं, पर उनकी चर्चा नहीं होती। क्यों? शायद हम हिन्दुस्तानी प्रकृति से संतोषवादी होते हैं। मैं इस दौरान पुश्तैनी कारीगरी से बेजार और जलावतनी के लिए मजबूर होते लोगों से मिला। वे दुखी हैं, अपने हालात में परिवर्तन चाहते हैं, पर वोट देते वक्त धर्म और जाति की जंजीरों की जकड़न से आजाद नहीं होना चाहते। वे जानते हैं, चुनाव उनके हालात को बदलने की चाबी है, पर वे इसका इस्तेमाल करने से हिचकते हैं। उन्हें अपने सामाजिक वजूद में माली हैसियत की हिस्सेदारी जरूरी नहीं लगती। यह जहालत नेताओं के लिए वरदान से कम नहीं। ऐसी स्थिति में रिपोर्ट कार्ड देने के बजाय उन्हें सिर्फ भरमाने वाली नारेबाजी करनी है, जो आसान है। अपनी कठिन जिंदगी से दूसरों की राह आसान करना क्या आत्मघात नहीं? इस सवाल को मैंने कई बार पूछा और हर बार एक असमंजस भरा मौन अपने दरमियां पसरता पाया। यह असमंजस कब खत्म होगा?
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