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अरविंद और राजनीति का अंधकूप

आंकड़ों की दृष्टि से इस चुनाव को परखें, तो केजरीवाल अपना वोट बैंक बचाने में बुरी तरह असफल रहे हैं। पिछली बार आम आदमी पार्टी ने 53.57 फीसदी मत हासिल किए थे…

Shashi Shekhar लाइव हिन्दुस्तानSat, 8 Feb 2025 06:56 PM
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अरविंद और राजनीति का अंधकूप

वाकया वर्ष 2013 का है। अरविंद केजरीवाल नई दिल्ली में ‘हिन्दुस्तान’ कार्यालय आए और एक वरिष्ठ सहयोगी से कहा कि आप लोग ‘देश के लिए जरूरी’ जन-लोकपाल आंदोलन को ठीक से नहीं छापते। उनकी यह भी इच्छा थी कि वह हमारे संपादकीय सहकर्मियों से जन-लोकपाल, भ्रष्टाचार और सूचना के अधिकार के संबंध में विस्तृत वार्ता करें। मुझे सुझाव अच्छा लगा। कुछ दिनों बाद वह ‘हिन्दुस्तान टाइम्स बिल्डिंग’ में हमारे सहकर्मियों के बीच थे।

वह भारतीय राजस्व सेवा की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़कर संघर्ष के कठिन रास्ते पर निकल पडे़ थे, इसलिए लोग उन्हें गंभीरता से लेते थे। इसी बीच हम लोगों ने ‘हिन्दुस्तान’ में भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘कलंक कथा’ नाम की शृंखला शुरू की। अरविंद उन अंकों के अतिथि संपादक थे। उनके सुझाव तार्किक और समझदारी भरे होते। तब से अब तक अरविंद केजरीवाल ने लंबी यात्रा तय की है।

लगभग बारह वर्ष के इस सत्ता-काल में एक-एक कर उनके पुराने साथी या तो किनारा कर चुके हैं अथवा उन्हें किनारे कर दिया गया है। जो लोग संघर्ष के दिनों में उन्हें अरविंद कहकर पुकारते थे, वे अब उन्हें ‘सर’ या ‘सर जी’ कहते हैं। इसके बावजूद उनकी अगुवाई में आम आदमी पार्टी ने न केवल दिल्ली का चुनाव लगातार तीन बार जीता, बल्कि पंजाब में भी हुकूमत स्थापित कर ली। गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव में आप अपने सिर्फ पांच प्रत्याशी जीता सकी, लेकिन 13 फीसदी के करीब वोट पाकर यह नवोदित पार्टी राष्ट्रीय राजनीतिक दल का दर्जा हासिल करने में सफल रही।

यही वजह है कि दिल्ली की मौजूदा हार कई कहानियां एक साथ बयान करती है।

सत्ता पाने के बाद केजरीवाल के बदलते रंग-ढंग और बयान, उन अरविंद केजरीवाल को हर रोज मुंह चिढ़ाते थे, जो कभी मीडिया संस्थानों में घूमकर या जंतर-मंतर पर मुट्ठी भर लोगों से विमर्श कर या राजघाट पर मौन प्रदर्शन के जरिये ‘वैकल्पिक राजनीति’ के सपनों के पंख संजोया करते थे। उन दिनों वह कहते थे, सुरक्षा नहीं लूंगा, आलीशान बंगले में नहीं रहूंगा और वीआईपी तामझाम नहीं अपनाऊंगा। उनके प्रशंसक इसका उल्टा होते देख अवाक् रह जाते थे। संघर्ष के दिनों में वह किसी पर भी भ्रष्टाचार का आरोप जड़ते हुए उसके इस्तीफे की मांग कर देते थे। ‘शराब घोटाले’ के आरोप में जब केजरीवाल खुद जेल गए, तो उन्होंने त्यागपत्र देने से इनकार कर दिया। इस फैसले ने उन्हें सांघातिक नुकसान पहुंचाया, लेकिन किस्सा यहीं खत्म नहीं होता। उनके आलीशान राजकीय आवास पर पहले मुख्य सचिव और बाद में सांसद स्वाति मालीवाल से शारीरिक बदसुलूकी होने पर भी लोग हक्का-बक्का रह गए थे।

कोई आश्चर्य नहीं कि पिछले एक दशक में यह सवाल बार-बार उठा कि क्या यही वह ‘वैकल्पिक राजनीति’ है, जिसने उन्हें कुर्सी दिलाई?

अरविंद के तमाम चुनावी वायदे झूठे साबित हुए। उन्होंने दिल्ली वालों से कहा था कि आपका यह बेटा 2025 में आपको स्वच्छ यमुना में स्नान करवाएगा। यमुना आज भी संसार की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में एक है। दिल्ली नगर निगम का चुनाव जीतने से पहले उन्होंने तमाम वायदे किए थे, लेकिन हुआ क्या? राजधानी की खराब सड़कें, प्रदूषित पेयजल और बंद पड़ी स्ट्रीट लाइटें उनकी रही बची कलई हर रोज खोल रही थीं। जनता ने कथनी-करनी के इस भेद की सजा सुना दी है।

यह चुनाव जीतने के लिए केजरीवाल ने शोशेबाजी के साथ तमाम जतन किए थे। उन्होंने 19 विधायकों के टिकट काटकर जिन दल-बदलुओं को मैदान में उतारा, उनमें से अधिकांश चुनावी समर में खेत रहे। आप ने 43 मौजूदा विधायकों को फिर टिकट दिया, उनमें से 28 हार गए। केजरीवाल के साथ उनके नायब मनीष सिसोदिया और तमाम तीरा-तुक्काम भी धराशाई हो गए हैं। इसे उनके ‘दंभ और दगाबाजी’ की पराजय माना जाएगा।

इसमें कोई शक नहीं कि आम आदमी पार्टी को अब अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी। अभी से सवाल उठ रहे हैं कि क्या वह पंजाब की सरकार बचा पाएगी? कांग्रेस ने अंतिम नतीजों से पहले ही दावा ठोक दिया कि पंजाब में मुख्यमंत्री सहित 30 आप विधायक पाला बदलने को तैयार हैं। आप अभी तक एक पार्टी की जगह एक मुखिया के इशारों पर चलने वाला समूह रही है। क्या पुन: उठ खड़ा होने के लिए जरूरी नैतिक बल उसके पास रह बचा है? कांग्रेस ही नहीं, भाजपा भी उसकी कमजोरियों का पूरा लाभ उठाने की कोशिश तत्काल करेगी। आने वाले हफ्तों में आप के संचालक मंडल को नई कानूनी चुनौतियों से भी दो-चार होना पड़ सकता है।

आंकड़ों की दृष्टि से इस चुनाव को परखें, तो केजरीवाल अपना वोट बैंक बचाने में बुरी तरह असफल रहे हैं। पिछली बार आम आदमी पार्टी ने 53.57 फीसदी मत हासिल किए थे। इस बार उन्हें महज 43.55 प्रतिशत मत मिले हैं। इसके विपरीत भाजपा ने पिछले चुनाव के मुकाबले सात फीसदी से अधिक की उछाल मारी है। ऐसा कैसे हुआ?

लोकसभा चुनाव में मिले झटके के बाद भगवा दल ने गहरा आत्ममंथन किया था। हरियाणा और महाराष्ट्र में हासिल हुई जबरदस्त जीत इसी सुधरी रणनीति से उपजी थी। भाजपा ने उसे दिल्ली में भी दोहराया। इसने आप की मुफ्त रेवड़ियों के दांव के धुर्रे उड़ा दिए। केजरीवाल रह-रहकर प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती देते थे। चौथे आम चुनाव को ‘केजरीवाल बनाम मोदी’ बनाने से पहले उन्हें अपने जर्जर संगठन और शासन को दुरुस्त करना चाहिए था, उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस चुनाव ने एक बार फिर मोदी के लुभाऊ और टिकाऊ चेहरे के साथ अमित शाह की संगठन क्षमता का लोहा मनवा दिया है।

भाजपा की खूबी है कि एक चुनाव खत्म होता नहीं कि वह दूसरे की तैयारी शुरू कर देती है। शनिवार की सुबह नतीजे आने की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार के राजग सांसदों से रूबरू थे। इस बैठक का एक ही मौजूं था, बिहार की एक और विजय। हालांकि, हर सफलता चुनौती लेकर आती है। भाजपा को एक ऐसा मुख्यमंत्री चुनना होगा, जो पार्टी की अंदरूनी राजनीति के साथ जन-कल्याण के वायदों को पूरा कर सके।

यहां कांग्रेस की चर्चा जरूरी है। देश की सबसे पुरानी पार्टी ने पिछली बार के 4.63 फीसदी मतों में लगभग दो अंकों का इजाफा जरूर किया है, पर वह एक भी विधायक जिताने में नाकामयाब रही। इस हार के बावजूद एक बात तय हो गई है कि कांग्रेस भले तमाम राज्यों में अपने बूते पर चुनाव नहीं जीत पाती, लेकिन कामयाबी हासिल करने के लिए क्षेत्रीय दलों को उसकी जरूरत पड़ती है। झारखंड का पिछला चुनाव इसका उदाहरण है। कुछ दिलजले कह सकते हैं कि पार्टी ने गुजरात और हरियाणा का बदला चुका लिया, लेकिन राज्य-दर-राज्य ऐसी हार कांग्रेस नेतृत्व के लिए शुभ संकेत नहीं है।

इसके साथ ही ‘इंडिया ब्लॉक’ के अस्तित्व पर भी सवाल उठ खडे़ हुए हैं। शनिवार की सुबह जब नतीजे आने शुरू भी नहीं हुए थे, तभी उमर अब्दुल्ला के एक ट्वीट ने चर्चाओं का बाजार गर्म कर दिया। उमर ने एक मीम लगाते हुए लिखा था- और लड़ो आपस में। उमर गलत नहीं हैं। इस चुनाव का यह भी संदेश है कि भाजपा से पार पाने के लिए सभी विपक्षी दलों को एक होना होगा।

अंत में एक जरूरी सवाल। जो अरविंद केजरीवाल कभी राजनीतिक सड़ांध के विरुद्ध एक धर्मयोद्धा की तरह उभरे थे, वह खुद इसका हिस्सा क्यों और कैसे बन गए? केजरीवाल को इसका जवाब देना ही होगा। राजनीति के अंधकूप से उबरने का अकेला रास्ता यही है।

@shekharkahin

@shashishekhar.journalist

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