Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan aajkal column by shashi shekhar 16 February 2025

सज्जन कुमार की सजा का संदेश

  • सिख हिंसा के सभी दोषियों को तत्काल सजा मिलनी चाहिए थी, लेकिन अभी तक बहुत से लोग न्याय की पहुंच से परे हैं। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि हमलावर समूह और उसके संगठनकर्ता भारतीय संविधान की उस भावना के भी हत्यारे थे, जो इंसानी हक-हुकूक…

Shashi Shekhar लाइव हिन्दुस्तानSat, 15 Feb 2025 07:44 PM
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सज्जन कुमार की सजा का संदेश

इंसानी फितरत बहुत जल्द इतिहास के कड़वे सबक भूल जाने की है। आज सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने वाले इस तथ्य को विस्मृत कर जाते हैं कि अतीत में ऐसी करतूतें बेहद विनाशकारी साबित हो चुकी हैं। सज्जन कुमार को पिछले बुधवार को मिली एक और सजा ने न केवल उन दिनों की याद ताजा कर दी, बल्कि घृणा से बजबजाती हमारी दुनिया के बारे में नए सिरे से सोचने को भी प्रेरित किया है।

जसवंत सिंह और उनके बेटे की हत्या के जिस मामले में सज्जन कुमार को दोषी करार दिया गया है, उसे इस मुकाम तक पहुंचाने के लिए पीड़िता को कैसे-कैसे पापड़ बेलने पडे़! इस दौरान पुलिस ने एक बार तो ‘क्लोजर रिपोर्ट’ ही लगा दी थी। उस दांव के असफल हो जाने के बावजूद लंबे समय तक वह गिरफ्तार नहीं किए गए, लेकिन कानून के हाथ लंबे होते हैं। इस वक्त भी वह पांच अन्य लोगों की हत्या के मामले में सजा काट रहे हैं। हालांकि, सिख हिंसा के सभी दोषियों को तत्काल सजा मिलनी चाहिए थी, लेकिन अभी तक बहुत से लोग न्याय की पहुंच से परे हैं।

यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि हमलावर समूह और उसके संगठनकर्ता भारतीय संविधान की उस भावना के भी हत्यारे थे, जो इंसानी हक-हुकूक और भाईचारे को प्राथमिकता देती है। इस मामले में हुई देरी अक्षम्य है।

सरदार जसवंत सिंह और उनके बेटे को पहली नवंबर 1984 को नई दिल्ली के सरस्वती विहार इलाके में जिंदा जलाकर मार दिया गया था। आतताइयों की भीड़ ने छोटे बच्चों व महिलाओं से कहा था कि वे चाहें, तो भागकर जान बचा सकते हैं, लेकिन जसवंत की 14 साल की नाबालिग बेटी भगाने पर भी नहीं भागी। नतीजतन, उसे अपने पिता और भाई को जिंदा जलते देखने का अभिशाप भोगना पड़ा। अभी तक उन क्रूर लम्हों के गहरे जख्म उसके दिल और दिमाग में हलचल पैदा करते हैं। अदालत में गवाही देते वक्त उसकी लरजती आवाज और भीगी पलकें इसकी गवाह थीं। न्यायिक प्रक्रिया के इन बोझिल पलों में जैसे वह अतीत के उन काले दिनों में लौट गई थी, जहां चीखें, कोलाहल, भीड़, गुस्सा, गम, बेबसी और लाचारी थी। हाई स्कूल में पढ़ रही किशोरी को उस वक्त यह भी नहीं पता था कि ये हत्यारे कौन हैं, कहां से आए हैं और इनका नेता कौन है?

वह सिर्फ इतना जानती थी कि देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके ही सरकारी आवास में कल हत्या कर दी गई और हत्यारे दुर्भाग्य से उसी संप्रदाय के थे, जिसमें उसका जन्म हुआ। उसका न तो हत्या से कोई वास्ता था, न हत्यारों से। वह उस सियासत से भी अनजान थी, जिसने देश में ऐसे हालात पैदा कर दिए थे।

सज्जन कुमार तो शायद कभी इस मामले में फंसते ही नहीं, पर एक दिन उस किशोरी के सामने एक पत्रिका पड़ गई। इस पत्रिका के मुखपृष्ठ पर सज्जन कुमार की तस्वीर छपी थी। उसे पहचानते देर नहीं लगी, पर उसकी फरियाद को अंजाम तक पहुंचने में 41 साल लग गए। आज वह 54 साल की हो चुकी है। भारतीय राष्ट्र-राज्य ने उसके साथ न्याय तो किया है, मगर ‘जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनाइड’ की कहावत उस पर सौ फीसदी लागू होती है। बताने की जरूरत नहीं कि इस हिंसा में पूरे देश में 2,700 से अधिक लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति स्वाहा हो गई थी। ऐसा लगा था कि अब भारत की सिख भुजा हमेशा के लिए टूट गई है। इस देश के सिखों को सलाम कि वे एक बार फिर सारे भेद भुलाकर उठ खडे़ हुए और आज देर से ही सही, वे हत्यारों को कम से कम कानून का आईना तो दिखा रहे हैं।

मैं खुद उस देशव्यापी हिंसा का प्रत्यक्षदर्शी हूं। उन दिनों मैं इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में रहता था। सुबह कहीं बाहर से लौटा था कि मेरे कार्यालय से फोन आया कि इंदिरा गांधी पर गोलियां चला दी गई हैं और पता नहीं, वह जिंदा भी हैं या नहीं! मैं दौड़कर अखबार के दफ्तर पहुंचा। हम शाम का बुलेटिन निकालने की तैयारी कर रहे थे कि दोपहर बीतते-बीतते हिंसा भड़क उठी। सिखों की दुकानें लूटी जाने लगीं, गुरुद्वारों पर हमले हुए और उनके घरों में भीड़ घुस गई। शाम तक तीन लोग मारे जा चुके थे और दर्जनों घायल थे। अफसोस तो इस बात का है कि उस समय इलाहाबाद के जिलाधिकारी खुद सिख थे, लेकिन कानून और व्यवस्था उस मतवाली भीड़ के सामने बेबस साबित हो रही थी। दुर्भाग्य से शहर-दर-शहर ऐसा हो रहा था।

उस दिन एक ऐसे मंजर से दो-चार होना पड़ा, जो अप्रत्याशित और अकल्पनीय था। लाउदर रोड पर लुटेरों और दंगाइयों की भीड़ के बीच मेरी नजर एक नन्ही लड़की पर पड़ी। उसने अपने फ्रॉक में कुछ कॉपियां, पेंसिल और पेन के साथ एक स्याही की दवात जतन से समेट रखी थी। बलवाइयों की उन्मत्त जमात के बीच वह बेखौफ अपने घर की ओर बढ़ रही थी। तय था, इतना सामान वह खुद नहीं रख सकती थी और किसी ने उसकी मदद की है। कौन था वह, जिसने एक मासूम को उस नफरती भीड़ का हिस्सा बना दिया था? वह बच्ची अब पचास बरस के आस-पास होगी। क्या उसके ख्यालों में वह काली दोपहर कभी उभरती है? उभरती भी है, तो कैसे?

लूट और हिंसा के उन क्षणों को भुलाना मेरे लिए संभव नहीं।

1990 के दशक में एक बार फिर हमें सांप्रदायिक हिंसा के नए तेवर और कलेवर देखने को मिले थे। इंदिरा गांधी की हत्या हरमंदिर साहिब परिसर में सेना के प्रवेश से उपजे आक्रोश का नतीजा थी। इस बार बाबरी मस्जिद बहाना बनी। देश के तमाम शहरों में इस दौरान दंगे भड़के। इनमें दो हजार से अधिक भारतीयों को जान गंवानी पड़ी और अरबों की संपत्ति का बंटाधार हो गया। 1984 की भांति पुन: ऐसा लगा कि देश के दो प्रमुख समुदाय अब कभी पहले जैसे नहीं रह पाएंगे, लेकिन भारत और भारतीयता इस बार भी जीती। हम फिर से मिल-जुलकर रहने लगे।

तब से अब तक हालात काफी बदले हैं। उन दिनों सोशल मीडिया नहीं हुआ करता था, इसलिए नफरत पर काबू पाने में बहुत मुश्किल नहीं होती थी। धरती के बिखरे हुए बाशिंदों को जोड़ने के नाम पर उपजे सोशल मीडिया ने अब रोज-ब-रोज इंसानों को बांटना शुरू कर दिया है। यह खतरनाक प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। पिछले दिनों कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय का एक चौंकाने वाला शोध प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार, एलन मस्क ने जब से ट्विटर का अधिग्रहण किया है, तब से उसका न केवल नाम बदला, बल्कि उसकी प्रवृत्ति भी परिवर्तित हो गई है। एक्स पर नफरती पोस्ट और रिपोस्ट लगभग पचास फीसदी तक बढ़ गई हैं। बताने की जरूरत नहीं कि मस्क इस समय दुनिया के सबसे ताकतवर शख्स अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रमुख सहयोगी और सलाहकार हैं।

जब शीर्ष पर बैठे लोग जाने-अनजाने घृणा फैलाने के घृणास्पद काम में जुट जाएंगे, तो दुनिया के शांतिकामियों का काम निश्चित तौर पर कुछ और कठिन हो जाएगा। दुर्भाग्य से इस समय ऐसा ही हो रहा है।

@shekharkahin

@shashishekhar.journalist

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