प्रज्ञा के जागरण से बदलेगी दृष्टि, होगा सत्य से साक्षात्कार
- हम हमेशा दुनिया को, दूसरों को बदलने की बात करते हैं। लेकिन अपने पर कभी ध्यान नहीं देते। जब तक हम स्वयं को, अपनी दृष्टि को नहीं बदलेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। अगर हमने अपनी दृष्टि बदल ली तो सृष्टि स्वयं ही बदल जाएगी और यह दृष्टि प्रज्ञा के जागरण से बदलेगी, तब होगा सत्य से साक्षात्कार।

Pravchan: आंख साफ है तो दुनिया साफ है। आंख में धुंधलापन है तो सारी दुनिया धुंधली हो जाती है। तर्कशास्त्र में ‘द्विचंद्रबोध’ की बात आती है। चांद है तो एक, किंतु दृष्टि दोष के कारण वह दो दिखाई देता है। पीलिया के रोगी को सारी सृष्टि पीली-पीली दिखाई देती है। दृष्टि पर ही दृष्टि का बोध निर्भर है और साथ-साथ सृष्टि का निर्माण भी बहुत कुछ उस पर ही निर्भर है। जीवन-निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है— दृष्टिकोण का विपर्यय। जीवन-निर्माण का सबसे बड़ा रहस्य-सूत्र है—दृष्टिकोण का निर्माण। प्रसिद्ध कहावत है- ‘जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि।’
पहले हम दृष्टि को बदलने की बात करें। सृष्टि को बदलने की बात पहले न करें। यदि दृष्टि बदलती है तो प्रयोजन पूरा हो जाता है। सृष्टि अपने आप बदल जाती है। उसके लिए इतनी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। सबसे जटिल प्रश्न है दृष्टि को बदलना। यदि ध्यान के द्वारा दृष्टि बदल जाती है तो बहुत कुछ हो सकता है। मेरा विश्वास प्रतिदिन गहरा होता जा रहा है कि जिसने सच्चाइयों का साक्षात्कार कर लिया है, उसकी दुनिया बदल जाती है। जिसने सच्चाई का साक्षात्कार नहीं किया, वह हजार बार दुहाई देगा, पर बदलेगा नहीं। सबसे बड़ा प्रश्न है— सत्य का साक्षात्कार। दृष्टि बदलने का अर्थ है— सत्य का साक्षात्कार होगा।
दृष्टि बदलने का पहला सूत्र है— अपने आपको देखना। प्राय लोग अपने आपको नहीं देखते। वे सब कुछ देखते हैं, केवल अपने को छोड़कर। यह बहुत विकट समस्या है। ऊंट के सवारों की गिनती हो रही थी, बीस चले थे, उन्नीस को गिन लिया पर अपने आपको नहीं गिना। यह भूल केवल वह ऊंट का सवार ही नहीं करता, हर आदमी करता है। वह अपने आपको छोड़कर और सबको गिनता है। उसमें अपने आपको शामिल नहीं करता। हर आदमी सोचता है कि जो जन्म लेता है, वह मरता है। मरते हुए को वह देखता भी है। पर, अपने बारे में विश्वास नहीं होता है कि मैं मरूंगा। अपने आपको अलग कर देता है। यदि मृत्यु की सच्चाई को कोई देख लेता तो शायद बहुत सारे गलत काम नहीं करता। किंतु मृत्यु को जानता है, यानी मानता है, पर उस सच्चाई का अनुभव नहीं करता, साक्षात्कार नहीं करता। इसलिए वह अनेक बुराइयां कर लेता है।
आदमी अपने आपको इतना शुद्ध और निखालिस मानता है कि उतना शायद दूसरे को कभी नहीं मानता। एक भोले से भोला आदमी भी अपने आपको पूर्ण मानता है। मैंने एक आदमी को देखा, जिसका ज्ञान यदि देखें तो हंसी आ जाए। किसी ने पूछा, एक घंटाघर की घड़ी है और एक हाथ की घड़ी है। घंटाघर की बड़ी घड़ी की सूई चलेगी और हाथ की छोटी घड़ी की सूई चलेगी, तो कुछ तो फर्क पड़ेगा? उसने कहा, बड़ी घड़ी की सूई चलेगी तो समय ज्यादा लगेगा और छोटी को कम समय लगेगा। यह उत्तर है उस व्यक्ति का। वह इतना होशियार अपने आपको मानता है कि उतना होशियार अपने मैनेजर और अपने मालिक को भी नहीं मानता। कारण वही है, उसने पड़ोसी की बुराई का थैला तो आगे लटका लिया और अपनी बुराई का थैला पीछे कर लिया। यह दृष्टिकोण की प्रतिकूलता है।
जीवन की सफलता का पहला सूत्र— दृष्टिकोण को बदलना है। अपने आपको देखने की आवश्यकता का अनुभव करना है। दूसरी बात है, हम कैसे जानें कि दृष्टिकोण बदल गया? हमारा व्यक्तित्व दो भागों में बंटा है। हमारा ध्यान केवल बाह्य व्यक्तित्व की ओर जाता है। हम बाहर को देखते हैं। समस्याओं का समाधान भी बाहर खोजते हैं, शक्ति भी बाहर खोजते हैं, ज्ञान और आनंद भी बाहर ही खोजते हैं। दृष्टिकोण बदलने का अर्थ है— भीतर शक्ति, आनंद और ज्ञान की खोज। यदि यह खोज लिया तो हमारा दृष्टिकोण बदल सकता है। हमारे भीतर कितनी संपदा है! जब भीतर देखना शुरू करते हैं तो प्रज्ञा जागती है। बाहर से जो लिया जाता है, वह ज्ञान है और भीतर जो जागता है, वह प्रज्ञान है। वह पढ़ने से नहीं आता। कितनी ही पुस्तकें पढ़ जाएं पर प्रज्ञा नहीं आती।
जो ज्ञान बाहर से पैदा होता है वह है— इंद्रिय ज्ञान। प्रज्ञा है— आंतरिक ज्ञान। वह ‘आयसमुत्था’ बाहर से पैदा नहीं होती। एक अनपढ़ आदमी बहुत प्रज्ञावान और बहुत ज्ञानी हो सकता है। एक पढ़ा-लिखा आदमी बड़ा मूर्ख हो सकता है। प्रज्ञा का जागरण भीतर होता है। शक्ति का जागरण भीतर होता है। हम बाहर शक्ति को खोजते हैं। किंतु मूल स्रोत हमारे भीतर है। प्राण शक्ति प्रबल होती है तो बाहर की शक्ति भी काम आती है। प्राण शक्ति नहीं है तो बाहर की शक्ति भी सहारा नहीं दे सकती। कितने ही व्यायाम करें, कितनी ही दवाइयां खा लें और कितने ही शक्ति के कैप्सूल ले लें, यदि प्राण शक्ति प्रबल नहीं है तो एक भी दवा और एक भी रसायन काम नहीं करेगा। हमारी यह आस्था पैदा हो कि शक्ति, ज्ञान और आनंद का मूल स्रोत हमारे भीतर है।
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