बोले शाहजहांपुर: ईंट भट्ठों श्रमिकों को चाहिए मनरेगा और आयुष्मान कार्ड
Shahjahnpur News - ईंट भट्ठों पर काम करने वाले श्रमिकों की हालत बेहद खराब है। उन्हें मेहनत के अनुसार मजदूरी नहीं मिलती और कई बार उन्हें भूखा रहना पड़ता है। सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता, जिससे उनके बच्चों की...
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यह भट्ठों पर ईंट पाथते हैं। धूप हो या ठंड हमेशा खुले आसमान के तले काम करते हैं। बरसात में खाली हाथ रहते हैं। मेहनताना दिहाड़ी या ठेके के हिसाब से मिलता है। शोषण इनकी नियति बन चुका है। अशिक्षा की बेड़ियों ने इन्हें ऐसा जकड़ा है कि कोई और काम कर नहीं सकते। इनके लिए सरकार के पास तमाम योजनाएं हैं, लेकिन उनका लाभ इन श्रमिकों से कोसों दूर है। ईंट भट्ठों पर महिलाओं और पुरुषों को काम करते हुए तो देखा ही होगा। मिट्टी गूंथने के बाद सांचें में ढाल कर यह कच्ची ईंट तैयार करते हैं। इनकी जिंदगी भी कच्ची ईंट की ही तरह होती है। दूरस्थ स्थानों से यह सभी काम करने आते हैं। वहीं पन्नी तान कर रहते भी हैं। काम शुरू होने से खत्म करने तक यह घड़ी नहीं देखते हैं। सूर्य उदय होते ही काम शुरू, अस्त होने पर ही यह काम बंद करते हैं। इन श्रमिकों को काम भी ठेकेदार के माध्यम से ही मिलता है। मजदूरी भी उसके ही माध्यम से मिलती है। इसमें यह श्रमिक कभी कभी धोखा भी खा जाते हैं। इनका टारगेट तय होता है। लाख के हिसाब से ईंट पथाई कराई जाती है। फिर किश्तों में उसकी मजदूरी मिलती है। अक्सर मजदूरी को लेकर इनकी ठेकेदार से खिटपिट होती है।
दुश्वारियों की जकड़न में चूल्हा जलना मुश्किल
धूल और धुएं में जिंदगी झोंक रहे ईंट-भट्ठा मजदूर अपना सबकुछ झोंककर भी पेट नहीं भर पा रहे हैं। दो वक्त की रोटी के लिए परिवार सहित सुबह से शाम तक पसीना बहाते हैं। बावजूद इन्हें इनकी मेहनत के मुताबिक पारिश्रमिक और सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। लिहाजा इनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की बात तो दूर उनको अपना पेट भरने के लिए भी कामकाज जारी रखने की विवशता होती है। सबके आशियाने के लिए एक-एक ईंट बनाने वाले मजदूरों के सामने सबसे बड़ा संकट खुद के आशियाने बनाने के साथ दो वक्त की रोजी-रोटी का है। दिनभर की कड़ी मेहनत के बाद अगर एक हजार ईंट बना लीं तो बमुश्किल 300 से 390 रुपए रुपये मिलते हैं, पर ये कई बार हाथ नहीं आते। कारण-ठेकेदारों का कमीशन। दुश्वारियों के बीच रह रहे इन मजदूरों के घरों में कई बार चूल्हा नहीं जल पाता है।
न मनरेगा और न ही आयुष्मान का बना कार्ड
शाहजहांपुर जिले में 100 से अधिक ईंट-भट्ठे संचालित हैं। इन पर काम करने वाले मजदूरों की संख्या का कोई अधिकारिक आंकड़ा तो नहीं है, लेकिन एक अनुमान है कि लगभग जिले में 7000 से अधिक मजदूर काम करते हैं। बातचीत का सिलसिला शुरू किया गया तो मजदूरों का दर्द छलक पड़ा। मजदूरों ने एक-एक कर अपनी समस्या को बताया। कहा कि हमारे पास न तो मनरेगा का कार्ड है, न ही आयुष्मान कार्ड बना है, जिससे दवाई करा लें। हल्की-फुल्की बीमारी होने पर तो हम लोग दवा लेने तक नहीं जाते। ज्यादा दिक्कत होती है तो इलाज करवाते हैं। उसके लिए पैसा नहीं होता है तो ठेकेदार से उधार लेना पड़ता है।
कर्ज उतारते ही बीत जाती है जिंदगी
ईंट पथाई का काम कर रहे प्रेम ने बताया कि उसका पूरा परिवार खेतों में खुले आसमान के नीचे कच्ची ईंटों की झोपड़ी बनाकर रह रहा है। दिन-रात मेहनत कर पति-पत्नी तकरीबन एक हजार ईंट बना लेते हैं। जिसके एवज में लगभग 500 रुपये की मजदूरी हाथ लगती है। कभी-कभी मौसम की मार में एक भी ईंट नहीं सुखा पाते हैं। ऐसे में कर्जा लेकर गुजर बसर करनी पड़ती है। पिछला कर्ज उतारते-उतारते कभी भी सुकून का जीवन नहीं जी पाते। मजदूरों ने बताया कि अगर उनके क्षेत्र में ही काम मिलने लगे तो उनको इस तरह की स्थितियों में न रहना पड़े। यहां न तो शौचालय की व्यवस्था होती है, न ही साफ पानी की। सुरक्षा-व्यवस्था और दवा का प्रबंध भी नहीं होता। सुनसान क्षेत्र में भट्टे बने होते हैं, जहां से अस्पताल और बाजार काफी दूर होते हैं।
योजनाएं तमाम, फिर भी लाभ से वंचित
ईंट भट्ठा श्रमिकों के लिए उत्तर प्रदेश भवन एवं अन्य संनिर्माण कर्मकार कल्याण बोर्ड गठित है। श्रमिकों के लिए मातृत्व, शिशु एवं बालिका मदद योजना, संत रविदास शिक्षा प्रोत्साहन योजना, अटल आवासीय विद्यालय योजना, आवासीय विद्यालय योजना, कौशल विकास, तकनीकी उन्नयन एवं प्रमाणन योजना, कन्या विवाह सहायता योजना, शौचालय सहायता योजना, आपदा राहत सहायता योजना, महात्मा गांधी पेन्शन योजना, गम्भीर बीमारी सहायता योजना, निर्माण कामगार मृत्यु व दिव्यांगता सहायता योजना संचालित हैं। फिर भी इनका लाभ नहीं मिल पाता है। दरअसल, अधिकांश श्रमिक दूसरे जिलों के रहने वाले होते हैं। योजना का लाभ अपने ही जिले में मिल पाता है। अगर योजना के लाभ के लिए सरकारी दफ्तर जाएं तो वहां औपचारिकताएं पूरी करना इनके बूते की बात नहीं है। श्रमिकों का कहना है कि संबंधित विभागों को हम लोगों तक पहुंचना चाहिए, लाभ दिया जाना चाहिए। एक दिन की छुटटी करके विभागों में जाया जाए तो मजदूरी मारी जाएगी, पेट कैसे भर पाएंगे।
शिकायत:
- योजनाओं के असली पात्र होने के बाद भी हमें लाभ नहीं मिल पाता है
- कभी कोई अधिकारी ईंट भट्ठा श्रमिकों का हाल लेने तक नहीं आता
- दूसरे जिलों से आते हैं, इसलिए कार्यस्थल वाले जिले में लाभ नहीं मिलता
- ईंट भट्ठा श्रमिकों और मालिक के बीच में सीधे संबंध में ठेकेदार बाधक होते हैं
- तमाम बीमारियों से जूझ रहे, फिर भी कभी कोई हेल्थ कैम्प नहीं लगता है।
सुझाव:
- मूल निवासी भले कहीं के हों, लेकिन योजना का लाभ कार्य करने वाले जिले में मिले
- ईंट भट्ठा श्रमिकों के लिए कार्यस्थल पर ही योजनाओं का लाभ देने को शिविर लगें
- बच्चों की पढ़ाई के लिए विशेष व्यवस्था तो हैं, लेकिन उसकी प्रक्रिया सरल होनी चाहिए
- योजनाओं का लाभ लेने को एक ही बार में सब औपचारिकताएं हों, दौड़भाग न हों
- सभी ईंट भट्ठा श्रमिकों को आयुष्मान कार्ड मिलें, इसलिए नियमों में कुछ छूट दी जाए
भट्ठों पर मजदूरी करने वाले बुजुर्गों को आखिरी वक्त में बहुत मुसीबत झेलनी होती है, क्योंकि वह काम करने वाली स्थिति में नहीं होते हैं। रोज कमा कर रोज खाने की स्थिति की वजह से कोई बचत भी नहीं होती है। बुढ़ापे में बीमारी होने पर इलाज को रुपया नहीं होता है। ऐसी स्थिति में बुजुर्ग मजदूर तिल तिल कर मरता है। -जाकिर
गरीब कैसे होते हैं, कोई आकर हमें देख ले। योजनाओं के असली हकदार हम लोग हैं। हम लोगों के लिए ही योजनाएं बनाई जाती हैं। पर हम लोग पहले भी गरीब थे, आज भी गरीब हैं। योजनाओं का लाभ नकली लोगों को मिल रहा है। असली हकदार इंतजार कर रहा है। सरकार को योजनाओं का लाभ हम लोगों को चल कर दिलाना चाहिए। -मुजीर
हम मजदूरों की जिंदगी का तानाबाना ऐसा होता है कि काम के सिवाए हम और कुछ सोच नहीं पाते हैं। जिंदगी बहुत ही खींचतान कर चलती है। हम लोग अपने भविष्य के बारे में सोच नहीं पाते हैं, केवल रोज कमाने और रोज खाने पर ही केंद्रित रहते हैं। इस सबके बीच में सबसे बड़ा नुकसान हमारे बच्चों का हो रहा है, जो बुनियादी शिक्षा से भी बहुत दूर हैं। -फयूम
नए मजदूरों के आयुष्मान कार्ड बनाने के नियम बहुत कठिन हैं। छह लोगों का परिवार अब बहुत कम लोगों का होता है। कम बच्चे ही होते हैं। ऐसे में नए मजदूरों और उनके परिवारों के सदस्यों के आयुष्मान कार्ड बन नहीं पाते हैं। सरकार को आयुष्मान कार्ड के लिए नियमों को सरल करना चाहिए, ताकि सभी को लाभ मिल सके। -असीउल्ला
पूरी उम्र बीत गई ईंट पाथते हुए। अब आराम करने की उम्र में भी काम करना मजबूरी है। इतना कभी रुपया हुआ ही नहीं कि उन रुपयों से अपनी किसी खुशी को पूरा कर पाते। हमारे बाद हमारे बच्चे भी इसी काम में लगे हैं, उनके बच्चे भी ईंट पाथेंगे, क्योंकि हम भविष्य के बारे में सोच ही नहीं पाते हैं। -शाहीन
बीस साल से अधिक वक्त गुजर गया भट्टे पर काम करते करते। जिंदगानी ऐसी है कि जो उम्र है, उससे अधिक के लगते हैं। गरीबी शायद हम लोगों तक आकर ही ठहर जाती है। गरीबी की इससे बड़ी पराकाष्ठा क्या होगी कि हमारी कई पीढ़ियां ईंट पाथने के काम में ही खप गईं। आगे की पीढ़ियों का भी उज्जवल भविष्य नहीं दिखता है। -परवीन
किशोरावस्था पार कर चुकीं लड़कियों के हाथ पीले करने के लिए अभी से चिंता सता रही है। सुना है कि लड़कियों की शादी के लिए सरकारी अनुदान मिलता है मगर हम लोगों तक यह भी नहीं पहुंच पाता है। उसकी प्रक्रिया को आसान बनाने की जरूरत है। -जमीर अहमद
भीषण गर्मी के समय मजदूरों की हालत बेहाल हो जाती है। तपती टीन में रहने से न दिन में सुकून मिलता है, न ही रात में नींद आती है। हम लोगों के लिए आवास और बिजली की व्यवस्था होनी चाहिए -शिवान
हमारे पास न तो श्रमिक कार्ड हैं न तो कहीं कोई विवरण दर्ज है। श्रमिक कार्ड बनवाने के लिए मजदूरी छोड़ कर जाना पड़ेगा, उसके बाद भी उसका लाभ मिल पाए, यह पता नहीं है। सरकार तो हम लोगों के बारे में बहुत सोचती है, लेकिन अफसर धरातल पर काम नहीं करना चाहते हैं।- छिद्दन
हम लोग भी इंसान हैं। तमाम संगठन अपने को सामाजिक बताते हैं, लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि एक मेडिकल कैंप हमारे भट्टे पर भी लगाते। एनजीओ अपने काम का ढिंढोरा पीटते हैं, लेकिन हम लोगों तक कभी नहीं आते हैं। अन्य संगठन भी केवल शहरों तक ही सीमित रहते हैं, हम सूनसान स्थानों पर काम करने वालों के बारे में भी उन्हें सोचना चाहिए। -शिवा
भट्ठों से निकलने वाले धुएं में मौजूद प्रदूषक हमारी आंखों, श्वसन और गति तंत्र को प्रभावित करते हैं। दिनभर धूप में काम करने के कारण हम लोगों को त्वचा से संबंधित तमाम परेशानियां खड़ी हो जाती है। हालात ऐसे होते हैं कि हम सरकारी अस्पताल तक जाने की स्थिति में नहीं रहते हैं। -पूजा
ठंड आती है तो कंबल बांटने वाले भी निकल पड़ते हैं। ऐसे लोगों को बार बार कंबल मिलता है, जो उसे बेच आते हैं, हम लोग भी हाड़मांस से बने इंसान हैं, हमें कंबल देने कोई नहीं आता है। हम लोगों की सुध तो लेखपाल भी कभी नहीं लेता है, जो सरकारी रुपये से कंबल बांटता है, उसे प्रधान ही दिखते हैं और उनके खास लोग। -शिशुपाल
न आवास, न शौचालय, न ही आयुष्मान कार्ड, पेंशन योजना भी नहीं, तो फिर आप ही सोचिए कि सरकारी योजनाओं का लाभ मिल किसे रहा है। समाज की अंतिम सीढ़ी पर तो हम लोग ही आते हैं और हम लोगों को ही योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है तो फिर अपात्रों को लाभ देने के लिए ही योजनाओं को बनाया जाता है क्या। सरकार को इस बारे में सोचना चाहिए। -मीना
राशन कार्ड से लेकर बीमारी का इलाज कराने तक कोई सरकारी लाभ नहीं हैं। असली हकदार हम लोग हैं। अगर हम लाभ लेने नहीं पहुंच पा रहे हैं तो सरकार के अफसरों को उसका कारण समझना चाहिए। कम से कम अपने कर्मचारियों को ही हम लोगों तक भेज कर योजनाओं का लाभ दिला दें, लेकिन वह दफ्तरों से बाहर ही नहीं देखना चाहते हैं। -रावेंद्र
ईंट भट्ठा श्रमिकों के लगभग 80 प्रतिशत से अधिक बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। उनमें से कई अपने माता-पिता की मदद को काम करते हैं। ईंटों को सुखाने और इकट्ठा करने का काम करते हैं। यही जीवनचक्र है जो चलता रहता है। मजदूर का बेटा भी मजदूरी कर रहा है। हालात आगे भी ऐसा ही कराते रहेंगे। किस्मत बदलने की उम्मीद ही खत्म हो गई। -रावेंद्र
ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूरों को कार्यस्थल पर बुनियादी सुविधाएं मुहैया होनी चाहिए। कम से कम चैन से सोने के लिए कमरे हों, शौचालय हों, पानी की व्यवस्था हो, इसके लिए सरकार को नियम बना देना चाहिए। हमारा खाना खुले में बनता है, हम नहाते खुले में हैं, शौच भी खुले में ही जाते हैं। -विष्णु
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