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बोले गोरखपुर: दुश्वारियों के बीच काम फिर भी नहीं मिलती पहचान

Gorakhpur News - गोरखपुर में सरकारी योजनाओं का प्रभाव कम है और गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) समाज की भलाई के लिए काम कर रहे हैं। हालांकि, इन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे फंडिंग की कमी, गलत सामाजिक छवि और...

Newswrap हिन्दुस्तान, गोरखपुरTue, 11 March 2025 04:30 AM
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बोले गोरखपुर: दुश्वारियों के बीच काम फिर भी नहीं मिलती पहचान

Gorakhpur news:समाज के अंतिम पायदान के व्यक्ति के लिए सरकार लोक कल्याण व लाभकारी योजनाएं संचालित करती है। सरकार की तमाम कवायदों के बावजूद योजनाएं धरातल पर पूरे प्रभाव के साथ नहीं दिखतीं। समाज का एक बड़ा तबका योजनाओं से महरूम है। इस गैप को भरने में गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) आगे आते हैं। इस दौरान इन्हें चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। इन्हें दर्द इस बात का भी है कि न सरकार अपना मानती है और न समाज। गोरखपुर। मानव तस्करी हो या बाल श्रम। इनके खिलाफ पुलिस और प्रशासन के साथ गैर सरकारी संगठन भी लगातार मोर्चा छेड़े हुए हैं। इसी तरह असहायों की सेवा हो या बुजुर्गों की देखभाल। लावारिस मासूमों की परवरिश हो या उनके भविष्य का सवाल। इन सामाजिक चुनौतियों से निपटने में सरकारी सिस्टम के साथ गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) भी जूझ रहे हैं। ये संगठन न सिर्फ सामाजिक, पर्यावरणीय, मानवाधिकार और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम करते हैं, बल्कि समाज के विकास, समुदायों में सुधार और नागरिक भागीदारी को बढ़ाते है। ये संगठन सरकार और आम जनता के बीच पुल का काम करते हैं। यह उन क्षेत्रों में कार्य करते, जहां सरकारी सेवाएं पूरी तरह से नहीं पहुंच पाती।

गांव में महिलाओं को बना रहे आत्मनिर्भर: एनजीओ गांव में स्वयं सहायता समूह (एसएसजी) का गठन करवाते हैं। यह समूह गांव की महिलाओं और पुरुषों की मदद से तैयार होता है। ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर बनवाने के लिए दर्जन भर एसएसजी संचालित करने मीनाक्षी राय सरकारी मदद न मिलने से निराश हैं। उन्होंने बताया कि एसएसजी के जरिए गांव में कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने की कोशिश की जाती है। सरकार भी इसे प्रोत्साहित कर रही है। जिले में करीब 30 हजार महिलाएं एसएसजी से जुड़ी हैं। महिलाओं ने उत्पाद तैयार कर लिए। उत्पाद बेचने के लिए बाजार नहीं है।

सरकारी व कंपनियों से नहीं मिलता फंड

सक्रिय एनजीओ वित्तीय संकट से जूझ रहे है। स्किल डेवलेपमेंट सेंटर चलाने वाले ने गोविंद मिश्रा ने बताया कि केंद्र सरकार के स्किल डेवलपमेंट योजना से प्रभावित होकर उन्होंने केंद्र खोल दिए। शुरुआत में इसके डेवलपमेंट के लिए जिले में करीब 300 सेंटर खोले गए। सभी केंद्र एनजीओ ने ही संचालित किए थे। इन सेंटरों से दो बैच छात्र पास हो गए। उनमें से 90 फीसदी को कोई रोजगार नहीं मिला। सरकार ने सेंटर संचालन के लिए जो वायदे और दावे किए थे। वह भी पूरा नहीं किया। संस्था को स्किल डेवलेपमेंट सेंटर संचालन की बेसिक रकम नहीं मिली। मजबूरी में 90 फीसदी सेंटरों को बंद करना पड़ा। अब इक्का-दुक्का कौशल विकास केंद्र ही संचालित हो रहे हैं। इसके संचालन में हाथ डालने वाले एनजीओ अपना सर पीट रहे हैं।

समाज में है गलत छवि

मानव सेवा संस्थान के राजेश मणि ने बताया कि समाज में एनजीओ को लेकर छवि भी गलत बनी है। इसके लिए सरकार और एनजीओ के संचालक ही जिम्मेदार हैं। समाज में फ्रॉड के कई मामले में एनजीओ के नाम से सामने आए। इससे लोगों का भरोसा एनजीओ नाम से हट गया है। इस भरोसे को वापस लाना एक चुनौती है।

80 फीसदी गैर सरकारी संगठन हैं निष्क्रिय

रजिस्ट्रार चिट फंड सोसायटी के आंकड़ों की मानें तो गोरखपुर में करीब 27000 एनजीओ पंजीकृत है। इसमें से 80 फीसदी निष्क्रिय हैं। पांच हजार से अधिक संगठनों के पंजीकरण की मियाद पूरी हो चुकी है। उन्होंने पंजीकरण का नवीनीकरण भी नहीं कराया। पंजीकृत करीब सात हजार संगठनों ने अपनी वार्षिक कार्यवृत्ति भी विभाग में जमा नहीं की। यह एनजीओ किस क्षेत्र में और क्या काम कर रहे हैं। इसका पता सरकार को नहीं है।

सेवा कार्य सहज नहीं, हिकारत भरी नजर से देखते हैं लोग

एनजीओ के कार्यकर्ताओं के लिए समाज सेवा का काम सहज नहीं है। अपने कार्य और महत्व के बारे में जागरूक करना एक चुनौती है। अलफलाह एजुकेशनल वेलफेयर के अफरोज आलम ने बताया कि एनजीओ संगठनों की छवि खराब हो चुकी है। समाज में बड़ी संख्या में लोग हिकारत भरी नजर से देखते हैं। एनजीओ बताते ही लोगों को लगता है कि यह फ्रॉड हैं। संस्था चूना लगा कर जाएगी।

मुश्किल से मिलता है प्रोजेक्ट के लिए फंड

एनजीओ के संचालक सौमित्र ने बताया कि प्रोजेक्ट को लेकर की बड़ी दिक्कत होती है। ज्यादातर प्रोजेक्ट के प्रपोजल रिजेक्ट हो जाते हैं। संगठनों के पास धन की कमी रहती है। सरकारी नियम भी अड़ंगा डालते हैं। प्रोजेक्ट के लिए प्रपोजल लिखने में एनजीओ के संचालकों से चूक हो जाती है। सीएसआर फंड मिलने में कई चुनौतियां है। एक तो वह फंड देर से मिलता है। दूसरे उसमें देने वाली कंपनी अपना हितलाभ देखती है।

बनी रहती है धन की कमी, उत्पाद बेचने के लिए बाजार नहीं मिल रहा

गोरखपुर। महिला स्वयं सहायता समूह संचालित करने वाली एडवोकेट पूजा गुप्ता ने बताया कि महिला सशक्तिकरण के नाम पर गांव-गांव में स्वयं सहायता समूह बनवा दिए गए। यह समूह जिन उत्पादों का उत्पादन कर रहे हैं, उन्हें बेचने लिए बाजार ही नहीं है। गांव की महिलाएं स्वयं सहायता समूह के साथ जुड़कर अचार, पापड़, चटनी, खिलौने, गुलदस्ते व गुड़िया बना रही हैं।

इन उत्पादों को बेचने के लिए उन्हें जद्दोजहद करनी पड़ती है। ऐसे में उनकी लागत भी डूब रही है। प्रोडक्ट खराब हो रहे हैं। इस पर सरकार को संजीदगी से विचार करना चाहिए।

शिकायतें

प्रोजेक्ट के लिए धन की कमी बनी रहती है।

सरकार से नहीं मिलती मदद, नियम बनते हैं बाधा।

लोगों को कार्यों और उसके महत्व के बारे में जागरूकता का अभाव।

दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने में मिलती है असफलता।

समाज में बन गया है गलत नैरेटिव, नहीं मिलता सहयोग।

सुझाव

सरकार सहयोग करें सीएसआर फंड मिले।

एनजीओ कार्यकर्ताओं के लिए भी ट्रेनिंग प्रोग्राम हो।

अच्छे प्रोजेक्ट की निगरानी और ठीक से प्रमोशन हो।

फंडिंग करने की प्रक्रिया सहज हो।

सामाजिक सपोर्ट मिले इससे एनजीओ का कार्य बेहतर होगा।

बोले एनजीओ संचालक

जहां सरकारी सुविधाएं नहीं पहुंच सकतीं, वहां एनजीओ पहुंचता है। समाज, सरकार और गैर सरकारी संगठन के बीच कम्युनिकेशन गैप बहुत है। इससे समाज सेवा में दिक्कत आती है।

-डॉ रहमत अली

महिला सशक्तिकरण के लिए सरकार ने स्वयं सहायता समूह बनवाने के निर्देश दिए थे। हर गांव में यह समूह बन गए। अब उनके उत्पाद नहीं बिक रहे। समूह कर्जदार हो गया। महिलाएं बेरोजगार हो गईं।

-पूजा गुप्ता

प्रोजेक्ट तैयार करने से पहले यह जरूर देखना चाहिए कि समाज को उसकी जरूरत है या नहीं, उसमें नवाचार क्या है? प्रोजेक्ट एप्रूवल की सफलता या असफलता इस पर निर्भर करती है।

-गोविंद मिश्रा

2008 से सोसाइटी संचालित कर रहा। महिला स्वावलंबन के क्षेत्र में प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना में फंड भी मिला। वार्षिक टर्नओवर की लिमिट इतनी बढ़ा दी गई है कि फण्ड जुटाना मुश्किल है।

-अफरोज आलम

2019 से समाज सेवा के क्षेत्र में काम कर रही लेकिन कोई सरकारी मदद नहीं मिली। भ्रष्टाचार ज्यादा है। प्रोजेक्ट पर फण्ड देने से पूर्व लोग धनराशि मांगते हैं। वर्षों प्रयास के बाद भी कोई मदद नहीं मिलती।

-कंचन सोनी

समाज के लिए कुछ अलग से करना अच्छा लगता था। इसलिए वेलफेयर सोसाइटी से पिछले तीन साल से जुड़ा हूं। महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जो बन पड़ता है, वह करता हूं।

-मनोज कुमार पाण्डेय

पेशे से दंत चिकित्सक हूं। कोरोना काल में सेवा क्षेत्र से जुड़ी तो आनंद आने लगा। विद्यालयों में कैंप लगा बच्चों को दांतों की देखभाल के प्रति जागरूक करती हूं। दिव्यांग बच्चों को निशुल्क सेवाएं देती हूं।

-डॉ नेहा

साक्षी महिला सेवा संस्थान की संचालिका हूं। तमाम प्रयास के बाद भी सरकारी फंडिंग नहीं मिली। महिलाओं को सरकार की योजनाओं से लाभान्वित कराने की कोशिश करती हूं।

-मीनाक्षी राय

वुमेन स्टैंड सोसाइटी भी संचालित करती हूं। उद्योग विभाग से चार करोड़ की सीएफसी मिल रही है। जहां ओडीओपी के प्रोडक्ट की पैकेजिंग होगी। खुटहन में कॉमन फैसेलिटी सेंटर खुलेगा।

-संगीता पाण्डेय

अब तक 80 बार स्वयं रक्तदान किया है। देहदान भी कर रखा है। दूसरों को प्रेरित कर सोसाइटी के माध्यम से 4000 यूनिट रक्तदान करा चुका हूं। जनसहयोग से सोसाइटी संचालित होती है।

-जसपाल सिंह

स्किल डेवलपमेंट पर सोसाइटी संचालित करता हूं। नाबार्ड से दो बार फंडिंग मिली, लेकिन फंडिंग को एनजीओ के वार्षिक ट्रांजेक्शन का निर्धारण हौसले तोड़ने वाला है। इस पर पुनर्विचार करना चाहिए।

-सौमित्र

एनजीओ रजिस्ट्रेशन कराने वालों की संख्या बढ़ रही है। इसमें सामाजिक संगठन के लिए कम, स्कूल या अन्य कार्य करने वाले अधिक आते हैं। फंड और सपोर्ट नहीं मिलने से काम नहीं कर पा रहे हैं।

-कुलदीप सिंह

कोशिश है कि एनजीओ चलाने वालों का भी एक संगठन हो, जिसके माध्यम से समाजसेवियों को तकनीकी रूप से मजबूती मिले। इसके माध्यम से नियमित कार्यशालाएं आयोजित हों।

-प्रद्युम्न मिश्र

प्राइवेट स्कूल टीचर की नौकरी छोड़कर समाजसेवा शुरू की है। समाज में एनजीओ को लेकर गलत धारणा है। अपने काम की बदौलत धारणा को ठीक करने की कोशिश कर रही हूं।

-संगीता मिश्रा

बोले जिम्मेदार

ऐसा नहीं है कि सभी एनजीओ खराब हैं। दक्षिण भारत में एनजीओ बहुत बेहतर काम कर रहे हैं। उनसे सीखने की जरूरत है। काम में पारदर्शिता से सरकार का भरोसा जीतना होगा। उत्तर भारत में संचालित एनजीओ के प्रति शासन में कुछ पूर्वाग्रह भी है।

-राजेश मणि

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