अब पहले जैसी नही दिख रही होली की रंगत
Gangapar News - अब पहले जैसी नही दिख रही होली की रंगत-गांवों से गुम हो रहा फगुआ,होली,कबीरा-करछना।वसंत के मौसम में जहां दशकों पहले होली के महीनों पूर्व गांव-गिरांव में

वसंत के मौसम में जहां दशकों पहले होली के महीनों पूर्व गांव-गिरांव में होलिका लगाने की तैयारी में बच्चे जी-जान से जुट जाते थे और गांव-गांव चौपालों में ढोल-मजीरे के साथ फगुहारों की टोलियां बैठकी करती थी वह रंगत अब आधुनिकता की चकाचौंध में नही दिखाई पड़ रही है। फगुहारों का अभाव तो दिखाई पड़ ही रहा है वहीं दूसरी ओर अब के युवा पीढ़ी में होलिका लगाने का उत्साह पहले जैसा नही दिखायी पड़ रहा है। करछना क्षेत्र के देवरी, महेवा, भड़ेवरा, भुंडा, बसही, कचरी, गलिवाबाद, हिंदूपुर, मनैया, कपठुआ, कपूर का पूरा आदि कई गांवों के फगुआ चौताल गाने वाले कई पुरनिया प्रसिद्ध थे। कई गांवों में इन्हे होली पर्व पर गीत गाने के लिए विशेष रूप से बुलाया जाता था। किंतु क्षेत्र के ज्यादातर गांवों में अब यह देखने को नही मिल रहा है। परंपरागत रुप से इस मौसम में गाये जाने वाले गीत बुजुर्गो के साथ ही भगवान को प्यारे हो गये और अब नई पीढ़ी के लोग आधुनिकता से जुड़े तो अपनी पुरानी परंपरा और अपने माटी के गीतों को सीखने का प्रयास भी नही कर रहे है। होलिका दहन के बाद बोले जाने वाले सरारारारा....कबीरा और गली-गली घूमकर गाये जाने वाले गलियारा गीत की गूंज अब लुप्त होती जा रहा है, तो वहीं कई गांवों में होलिकाएं ही नही लग रही है। क्षेत्र के बुजुर्गो के मुताबिक इस मौसम में प्रायः अवल मिसिर और रामअभिलाष सिंह, रामलाल द्वारा रचित चौताल, डेढ़ताल, बेलवरिया और ढ़ाईताल गीतों को गाने की परम्परा रही है जो बदलते दौर के परवान चढ़ सिमटती जा रही है।
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