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बोले बलिया : अपने ‘आंगन में उपेक्षा से आहत हैं साहित्य के उपासक

Balia News - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सहित कई साहित्यकारों ने जिले में साहित्य की उपेक्षा पर चिंता व्यक्त की है। उन्होंने सरकारी आयोजनों में स्थानीय साहित्यकारों को न बुलाने, साहित्यिक चर्चा के लिए स्थान की...

Newswrap हिन्दुस्तान, बलियाSun, 16 Feb 2025 12:10 AM
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बोले बलिया : अपने ‘आंगन में उपेक्षा से आहत हैं साहित्य के उपासक

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, परशुराम चतुर्वेदी, डॉ. केदारनाथ सिंह, अमरकांत, दूधनाथ सिंह, भगवत शरण उपाध्याय, भैरव प्रसाद गुप्त के जिले में हिन्दी साहित्य की समृद्ध परम्परा को मौजूदा साहित्यकार पूरी तन्मयता से आगे बढ़ा रहे हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी पहचान भी स्थापित कर रहे हैं लेकिन खुद के ‘आंगन में उपेक्षा उन्हें तकलीफ दे रही है। सरकारी आयोजनों में न बुलाने का मलाल सालता है। कोई ऐसी जगह भी नहीं है, जहां साहित्यिक चर्चाएं हो सकें। अनुदान मिलता तो अनेक रचनाएं बाहर आतीं, जो धनाभाव में ‘कैद हैं। कुंवर सिंह इंटर कॉलेज परिसर में ‘हिन्दुस्तान से बातचीत में साहित्यकारों का दर्द छलक पड़ा। उन्हें अपने लिए किसी आर्थिक पैकेज या सहूलियत की दरकार नहीं है। वे चाहते हैं कि उन्हें अपने घर में उचित सम्मान मिले। उनकी छोटी-छोटी दिक्कतों का समाधान हो जाए। इंटर कालेज के प्रधानाचार्य और कवि शशि ‘प्रेमदेव ने कहा कि जिले के कई साहित्यकारों, कवियों ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है। उनकी कृतियां आज कई भाषाओं में अनुवादित की जा रही हैं लेकिन अपने यहां उनकी सुधि तक लेने वाला नहीं है। उनकी स्मृतियों को जीवंत बनाए रखने की कोई कवायद नहीं होती। उनके घर-गांव उपेक्षित पड़े हैं। उनके नाम पर संग्रहालय आदि बनाने पर कभी विचार नहीं हुआ। कहा कि यहां समय-समय पर सरकारी सांस्कृतिक आयोजन होते हैं लेकिन उसमें स्थानीय साहित्यकारों और कवियों की उपेक्षा होती है। सवाल किया, क्या जिम्मेदारों की नजर में जिले में ऐसा कोई साहित्यकार नहीं जो मंच पर बैठने के काबिल हो? बाहरी कवियों के नाम पर लाखों रुपये फूंक दिए जाते हैं। हम तो सिर्फ सम्मान ही चाहते हैं। जबकि हममें से ही कई लोग दूसरे प्रदेशों में जाकर जिले का झंडा बुलंद कर रहे हैं। सरकार ‘लोकल फॉर वोकल पर जोर दे रही है। इस लिहाज से भी जिले में होने वाले कार्यक्रमों में हमारा हक तो बनता है।

शंकर शरण ‘काफिर ने कहा कि जनपद में साहित्य और कविता को बढ़ावा देने के लिए सरकारी तंत्र के साथ जनप्रतिनिधि भी उदासीन हैं। जिला मुख्यालय पर कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां हम बैठकर साहित्यिक चर्चा कर सकें। महानगरों के ‘काफी हाउस की तर्ज पर यहां कोई ठिकाना होना चाहिए। इससे युवा वर्ग को साहित्य के लिए प्रेरित करना आसान होगा।

'चलता पुस्तकालय' को बचाइए

फतेह चंद बेचैन ने कहा कि साहित्यकारों के लिए टाउनहॉल में चलता पुस्तकालय दशकों पहले से स्थापित है। इसमें बहुत पुरानी पुस्तकें हैं लेकिन उन्हें सहेजने और समृद्ध बनाने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं हुआ। अब इसका भवन काफी जर्जर हो चुका है। यहां बैठना मुश्किल होता है। उसके कायाकल्प का प्रयास होना चाहिए।

हिन्दी दिवस पर भी उदासीनता

शिक्षिका और साहित्यकार उमा सिंह ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में राजभाषा को बढ़ावा देने का प्रावधान है लेकिन हिन्दी दिवस का आयोजन साहित्यकारों को स्वयं करना होता है। बुलाने पर भी कोई अधिकारी या जनप्रतिनिधि आना उचित नहीं समझते।

महिला साहित्यकारों को मिले बढ़ावा

कादम्बिनी सिंह ने महिला साहित्यकारों को बढ़ावा देने की वकालत की। कहा कि इसके लिए समय-समय पर महिलाओं का कवि या साहित्य सम्मेलन होना चाहिए। इससे महिलाओं की झिझक कम होगी और साहित्य की ओर उनका आकर्षण बढ़ेगा। जिले में महिला साहित्यकार और कवि गिनती की ही हैं।

विवि में नहीं होतीं प्रतियोगिताएं

शशि प्रेमदेव ने बताया कि उच्च शिक्षण संस्थानों में साहित्य को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर कार्यक्रमों का आयोजन होना चाहिए। जननायक चंद्रशेखर विश्वविद्यालय में पहले लेखन आदि प्रतियोगिताएं होती थीं। कई बार हम साहित्यकारों को निर्णायक मंडल में शामिल होने का मौका मिलता था लेकिन अब वह बंद है। उसे शुरू किया जाना चाहिए।

अनुदान की व्यवस्था सरल हो

नवचंद तिवारी ने कहा कि पुस्तकों के प्रकाशन में आर्थिक बाधा आती है। इसके लिए अनुदान लेना आसान नहीं होता है। काफी भाग-दौड़ के बाद भी जल्दी नहीं मिल पाता। उनकी प्रक्रिया आसान होनी चाहिए। आवेदन की व्यवस्था जिले स्तर पर हो तो साहित्यकार उसका लाभ ले सकेंगे।

साहित्य की ‘थाती सहेजना जरूरी

युवा साहित्यकार और शिक्षक श्वेतांक सिंह ने कहा कि जिले के कई साहित्यकारों ने दशकों की ‘तपस्या से अपनी लेखनी को ऊंचाई दी ही, जिले का भी गौरव बढ़ाया। जिले की इस ‘थाती को सहेजने की कोई ठोस पहल कभी नहीं हुई। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता डॉ. केदारनाथ सिंह की स्मृति में उनके गांव में गेट बनाने की चर्चा हुई लेकिन आज तक वह मूर्त रूप नहीं ले सकी। यही स्थिति दूसरे साहित्यकारों के गांवों में है। यह पीड़ा चुभती है। एक साहित्यकार के गांव को गोद लिया गया, कुछ कार्य हुए भी लेकिन उसके बाद किसी ने सुधि नहीं ली। उन्होंने जोर दिया कि नए खुलने वाले संस्थानों का नामकरण साहित्यकारों के नाम पर हो।

उन्हें शौक से बुलाएं, हमें न बिसराएं

रामेश्वर सिंह ने कहा कि ददरी मेला में भारतेंदु कला मंच पर स्थानीय साहित्यकारों को गए 20 वर्ष से अधिक हो गए। पहले उस मंच के कवि सम्मेलन और मुशायरों में स्थानीय साहित्यकारों को जगह दी जाती थी। जिम्मेदार लोग अब इसे उचित नहीं समझते। वहां बाहर के ही कवियों-साहित्यकारों को अवसर देने की परम्परा बनती जा रही है। उन्हें शौक से बुलाइए लेकिन हमें भी तो मौका दीजिए। श्रीराम सरगम ने चिंता जतायी कि भारतेंदुजी के नाम पर स्थापित कला मंच सिर्फ मनोरंजन स्थल बनकर रह गया है।

विभूतियों की स्मृतियों के लिए बने संग्रहालय

साहित्यकारों ने हिन्दी साहित्य की सेवा के जरिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिले का गौरव बढ़ाने वाली विभूतियों की स्मृतियां सुरक्षित रखने के लिए ठोस पहल की वकालत की। अरविंद उपाध्याय ने कहा कि आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के घर पर उनसे जुड़ी तमाम यादें अब भी मौजूद हैं। इसी प्रकार हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. केदारनाथ सिंह, अमरकांत आदि साहित्यकारों की स्मृतियों को एक स्थान पर सुरक्षित करने के लिए संग्रहालय बनवाया जा सकता है। रेलवे स्टेशन और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर इन साहित्यकारों से जुड़े शिलापट्ट लगें तो युवाओं के साथ भावी पीढ़ी उनसे परिचित होंगी। बाहर से आने वाले लोगों को भी बलिया की गौरवशाली साहित्य परम्परा की जानकारी होगी।

शिकायतें :

सरकारी सांस्कृतिक आयोजनों में स्थानीय साहित्यकारों को नहीं बुलाया जाता। इससे वे अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं।

कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां बैठकर साहित्य पर चर्चा कर सकें। चलता पुस्तकालय भी दम तोड़ रहा है।

हिन्दी दिवस पर अधिकारियों -जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति नहीं रहती। इससे बातें शासन तक नहीं पहुंचतीं।

जिले के ख्यातिलब्ध साहित्यकारों की स्मृतियों को सहेजने के लिए ठोस प्रयास नहीं हुए। उनके पैतृक गांव विकास से अछूते हैं।

किताबों-रचनाओं के प्रकाशन के लिए अनुदान की प्रक्रिया काफी जटिल है। इससे लाभ नहीं मिल पाता।

सुझाव :

सरकारी सांस्कृतिक आयोजनों में स्थानीय साहित्यकारों-कवियों को बुलाना चाहिए। उन्हें सम्मानित किया जाए।

कोई ऐसा स्थान हो जहां बैठकर साहित्य-कविता पर चर्चा हो सके। चलता पुस्तकालय का कायाकल्प होना चाहिए।

हिन्दी दिवस पर अधिकारियों-जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति सुनिश्चित हो। इससे हमारी छोटी शिकायतों का तत्काल समाधान हो जाएगा।

साहित्यकारों की स्मृतियां सहेजने की ठोस पहल होनी चाहिए। उनके गांवों का विकास हो। नए संस्थानों का नामकरण उनके नाम पर हो।

रचनाओं के प्रकाशन के लिए अनुदान प्रक्रिया सरल हो। इससे किताबों के प्रकाशन की बाधा दूर होगी।

छलका दर्द

सरकारी कार्यक्रमों में स्थानीय साहित्यकारों को नहीं बुलाया जाता। इससे उपेक्षा का बोध होता है।

-नवचंद्र तिवारी

खेलकूद की तरह ब्लाक, जिला स्तर पर साहित्यितक गतिविधियों का आयोजन होना चाहिए।

-उमा सिंह

साहित्यकारों-कवियों को अनुदान नहीं मिलता। आर्थिक कारणों से कई साहित्यकार दब जाते हैं।

-डॉ. कादम्बिनी सिंह

पहले ददरी मेला में भारतेंदु मंच पर स्थानीय कवियों को मौका मिलता था। अब वह परम्परा नहीं है।

-शंकर शरण ‘काफिर

दंगल, गीत-संगीत के नाम पर पैसे बहाए जाते हैं लेकिन साहित्यिक आयोजनों को महत्व नहीं मिलता।

-शशि ‘प्रेमदेव

साहित्यिक-कवि गोष्ठी आदि के नगर पालिका या जिला प्रशासन उचित स्थान उपलब्ध कराए।

-विजय मिश्र

बलिया महोत्सव हो या ददरी महोत्सव, प्रशासन बाहरी कवियों को ही मंच पर मौका देता है।

-फत्तेह चंद्र बेचैन

यहां के कवियों को दूसरे प्रदेश में उचित मंच और सम्मान मिल रहा है लेकिन वे अपने घर में उपेक्षित हैं।

-रामेश्वर सिंह

साहित्यकारों व कवियों की पुस्तक छपाई के लिए अनुदान नहीं मिलता। उसके लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं।

-श्रीराम प्रसाद ‘सरगम

जिले के मूर्धन्य साहित्यकारों-कवियों के नाम पर यहां कोई कॉलेज, पुस्तकालय, अस्पताल नहीं है।

-श्वेतांक सिंह

साहित्यकारों और कवियों को साहित्यिक यात्रा पर जाने के लिए रेल-बस में छूट मिले।

-अरविंद उपाध्याय

टाउनहाल का चलता पुस्तकालय समृद्ध किया जाए। बड़े साहित्यकार के नाम पर एक पुस्तकालय बने।

-मदन मोहन

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