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बोले आगरा, रोशनी बिखरेने वाले कुंभकारों के जीवन में अंधेरा

Agra News - आगरा में कुंभकारों का कारोबार मंदी का सामना कर रहा है। मिट्टी के बर्तनों की मांग घट रही है और युवा पीढ़ी इस काम से दूर हो रही है। कुंभकारों के बच्चे अब फैक्ट्रियों में काम कर रहे हैं। सरकार से मदद न...

Newswrap हिन्दुस्तान, आगराSat, 22 Feb 2025 06:05 PM
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बोले आगरा, रोशनी बिखरेने वाले कुंभकारों के जीवन में अंधेरा

आगरा। अपने हाथों से चाक पर मिट्टी को मनचाहा आकार देने वाले कुंभकारों के कारोबार पर मंदी की मार है। घर के सामने मिट्टी के बर्तन बनकर तैयार रखे हैं। पर कुंभकारों को इन बर्तनों के लिए खरीदार नहीं मिल रहे हैं। कारोबार की खराब हालात देखकर युवा पीढ़ी का इस काम से मोहभंग हो रहा है। कुंभकारों के बच्चे अब चाक चलाने के बजाय कंपनी में नौकरी करना पसंद कर रहे हैं। वजह ये है कि मिट्टी के बर्तन बेचकर इतना भी धन अर्जन नहीं हो पा रहा है कि घर का खर्चा निकल पाए। बच्चों की पढ़ाई लिखाई और दवाओं का इंतजाम हो जाए। कारोबार में आ रही गिरावट से दीपक बनाकर रोशनी बिखेरने वाले कुंभकारों के जीवन में अंधेरा छा रहा है। संवाद कार्यक्रम में कुंभकारों ने अपनी परेशानियां साझा कीं। कहा कि अगर सरकार से मदद नहीं मिली तो हाथ से मिट्टी को आकार देने वाले कुंभकारों की कला जल्दी ही दम तोड़ देगी।

भगवान राम के वनवास से लौटने के बाद लोगों ने मिट्टी के दीपक जला कर अयोध्या को जगमग कर दिया था। तब से अब तक दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाने की परंपरा चली आ रही है। कुंभकार त्योहार से पहले मिट्टी को आकार देकर दीपक बनाते हैं। दीपक में जलने वाली बाती घर को रोशन करती है। कुंभकारों के लिए यही कला उनकी रोजी-रोटी का जरिया है। लेकिन आज आधुनिक युग में कुंभकारों की यह माटी कला मिट्टी में मिलती नजर आ रही है। लोग इलेक्ट्रिक उत्पादों की चकाचौंध में फंसकर मिट्टी के दीपकों से दूरी बना रहे हैं। मिट्टी के दीपकों के बजाय घर में चाइनीज लाइट जला रहे हैं। माली हालत इस कदर खराब है कि वो मिट्टी के बर्तन बनाकर पूरे परिवार के लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पा रहे हैं। चिराग तले अंधेरा की कहावत कुंभकारों के परिवार पर सटीक बैठ रही है। कुंभकार आज आर्थिक संकट से जूझ रहा है। हालांकि पिछले कुछ सालों में लोगों ने चायनीज लाइटों का उपयोग कम किया है। लेकिन यह प्रयास कुंभकारों को संजीवनी देने के लिए नाकाफी है।

नाई की मंडी डेरा सरस निवासी कुंभकार समाज के लोग बताते हैं कि जनपद में कुंभकारों की बड़ी आबादी निवास करती है। करीब 8 हजार परिवार ऐसे हैं। जो मिट्टी के बर्तन बनाते हैं। इनमें लोहामंडी, गोकुलपुरा, बोदला, धनौली, ताजगंज, ईदगाह, नराइच, सीतानगर, रामबाग, कमलानगर, मोती कटरा, मधू नगर, शाहगंज पचकुइयां, नगला पदी समेत अन्य रिहायशी इलाको में रहने वाले कुंभकार शामिल हैं। कुंभकार बताते हैं कि अब मिट्टी महंगी हो गई है। पहले मिट्टी का ट्रॉली हजार, पंद्रह सौ रुपये में मिल जाती थी। अब एक ट्रॉली मिट्टी की कीमत बढ़कर 4 हजार रुपये हो गई है। इसके अलावा रास्ते में पड़ने वाले चौराहों पर चेकिंग के नाम पर सुविधा शुल्क भी अलग से देना पड़ता है। कुंभकारों का कहना है कि पहले कई गांवों में आसानी से मिट्टी मिल जाती थी। अब उन स्थानों पर लोगों ने मकान बना लिए हैं। अब मिट्टी मुश्किल से मिल पाती है। अब केवल अछनेरा, रायभा, फतेहाबाद और सेवला के गांव में ही बर्तन बनाने की मिट्टी मिल पाती है। लोगों ने बताया कि कुछ साल पहले सरकार ने मिट्टी के लिए जमीन के पट्टे किए थे। अब उन जमीनों पर लोगों ने कब्जा कर लिया है। इससे मिट्टी मिल पाना बेहद जटिल हो गया है। रही सही कसर प्लास्टिक और कागज के ग्लासों ने पूरी कर दी है। इन ग्लासों की वजह से कुल्हड़ का कारोबार बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।

मुश्किल से मिल रही मिट्टी

मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए कुंभकारों को काली मिट्टी, पीली मिट्टी और चीला मिट्टी की जरूरत पड़ती है। पहले ये मिट्टी गांवों में आसानी से मिल जाती थी। अब आबादी क्षेत्र बढ़ते जा रहे हैं। इससे उपयोगी मिट्टी का मिलना मुश्किल होता जा रहा है। अब कुंभकारों के उपयोग की मिट्टी कुछ ही गांवों में मिल पाती है। उसके लिए कुंभकारों को प्रति ट्रॉली 4 हजार रुपये कीमत चुकानी पड़ती है। कुंभकारों का कहना है कि मिट्टी के लिए कुंभकारों को पहले की तरह ही जमीन के पट्टे दिए जाने चाहिएं। ये परेशानी दूर होगी तभी कुंभकारों के जिंदगी पटरी पर आ पाएगी।

बढ़ गया है बर्तन पकाने का खर्च

कुंभकार राजू ने बताया कि कच्चे बर्तन को आग में पकाना पड़ता है। पहले भट्टियां हुआ करती थीं। तब मिट्टी के तैयार बर्तन आसानी से पक जाया करते थे। अब जगह कम है। भट्टियां खत्म हो चुकी हैं। अब मिट्टी के बर्तन पकाने के लिए कंड़े(उपले) का इस्तेमाल करना पड़ता है। उपले खरीदने के लिए कीमत खर्च करनी पड़ती है। उपले भी आसानी से नहीं मिलते। कभी कभी तो उपले लाने में अच्छा खासा किराया खर्च हो जाता है। इससे बर्तनों को पकाने का खर्च काफी बढ़ गया है। इसका असर लागत पर पड़ रहा है। मुनाफा कम होता जा रहा है।

हाथ पर भारी मशीन

प्रदेश में प्लास्टिक पर बैन लगने के बाद कुंभकारों को उम्मीद जगी थी की बाजार में मिट्टी के कुल्हड़ की मांग बढ़ेगी। इसका सीधा लाभ कुंभकारों को मिलेगा। लेकिन बाजार में कागज के गिलास की दस्तक ने उनकी उम्मीदों और सपनों को चकनाचूर कर दिया है। कागज की गिलास ने बाजार में अपनी जगह बना ली है। इससे बाजार में कुल्हड़ की मांग कम हो गई है। रही सही कसर मशीन से मिट्टी के कुल्हड़ बनाने वाले बड़े कारोबारियों ने पूरी कर दी है। मशीनों से बने कुल्हड़ों के कारण परंपरागत कुंभकारों को घाटा हो रहा है। हाथ से चाक घुमाकर कुल्हड़ बनाने वाले कुंभकारों को समय और मेहनत के साथ लागत भी ज्यादा लगती है। वहीं मशीनों से कम समय, कम मेहनत, कम लागत में ज्यादा उत्पादन होता है। ऐसे में कुंभकारों का कुल्हड़ महंगा होने के कारण आसानी से नहीं बिक पाता।

मिले इलेक्ट्रिक उपकरण तो बने बात

कुंभकारों का कहना है कि अगर उन्हें भी बिजली से चलने वाले उपकरण मिल जाए। तो कारोबार को जिंदा रखना आसान हो जाए। वह भी इलेक्ट्रिक चाक से कुल्हड़ बनाएंगे तो लागत कम आएगी। मुनाफा बढ़ेगा तो उनकी आजीविका अच्छे से चल पाएगी। आमदनी के अभाव में बिखर रही गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगी। कुंभकार तुलाराम ने जिला प्रशासन ने सभी कुंभकारों को निशुल्क इलेक्ट्रिक चॉक प्रदान किए जाने की मांग की है। साथ ही ये भी कहा कि सरकार की तरफ से अगर बर्तन पकाने के लिए अलग स्थान मिल जाए, तो कारोबार फिर से रफ्तार पकड़ सकता है। उन्होंने कुंभकारों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत लाभांवित किए जाने की मांग की है।

नहीं मिल रहे खरीदार

कुंभकार पन्ना लाल ने बताया कि युवा पीढ़ी का पुश्तैनी धंधे से मोह भंग हो गया है। वजह ये है कि मिट्टी के बर्तनों के अब खरीदार नहीं मिल रहे हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने में मेहनत ज्यादा लगती है। लेकिन आमदनी कम होती है। पहले मिट्टी के मटके को आम आदमी का फ्रिज कहा जाता है। गर्मी में मटके की बड़ी डिमांड रहती थी। स्वास्थ्य को भी नुकसान नहीं पहुंचता था। अब मिट्टी के मटके की मांग कम हो चुकी है। युवा अब मिट्टी के बर्तन बनाने की बजाय फैक्टरियों में मजदूरी कर रहे हैं। ताकि परिवार का गुजारा हो सके। एक दशक पहले तक मिट्टी के बर्तनों खासकर मटके व सुराही के एडवांस आर्डर रहते थे। अब मजदूरी निकालना भी मुश्किल हो गया है।

ऐसे बनते हैं मिट्टी के बर्तन

मिट्टी के बर्तन बनाना आसान काम नहीं है। कुंभकार रामजीलाल ने बताया कि मिट्टी आने के बाद उसे सुखाया जाता है। फिर मिट्टी को फोड़ा जाता है। इसके बाद मिट्टी को छाना जाता है। फिर पानी मिलाकर आटे की तरह मिट्टी को गूथा जाता है। तैयार हो चुकी मिट्टी से बर्तन बनाया जाता है। फिर तैयार बर्तन को तेज धूप में सुखाया जाता है। जब बर्तन अच्छी तरह सूख जाता है। उसके बाद बर्तन को आग में पकाया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में काफी मेहनत और समय लगता है। इसके बाद कहीं जाकर मिट्टी से बना बर्तन तैयार हो पाता है।

ये हैं समस्याएं

बर्तन बनाने के लिए नहीं मिल रही मिट्टी

मिट्टी की कीमत में हुआ कई गुना इजाफा

प्लास्टिक के गिलास से प्रभावित है कारोबार

इलेक्ट्रिक उपकरण न मिलने से परेशानी

दावत के बदले स्वरूप ने बिगाड़ा कारोबार

ये हैं समाधान

कुंभकारों को मिट्टी के लिए पट्टे दिए जाएं

मिट्टी लाने में होने वाली दिक्कत खत्म हो

प्लास्टिक के गिलास पर पूरी तरह प्रतिबंध

सभी को प्रदान किए जाएं इलेक्ट्रिक उपकरण

दावत में मिट्टी के बर्तनों का उपयोग बढ़े

पहले कुंभकारों को मिट्टी के लिए पट्टे दिए गए थे। अब वो पट्टे खत्म हो गए हैं। कुंभकारों को बर्तन बनाने के लिए मिट्टी नहीं मिल पा रही है। इस वजह से काफी दिक्कत आ रही है।

मुन्ना सिंह प्रजापति - पार्षद -

मिट्टी की कीमत काफी बढ़ गई है। पहले एक ट्रॉली मिट्टी हजार, पंद्रह सौ रुपये में मिल जाती थी। अब एक ट्रॉली मिट्टी की कीमत करीब 4 हजार रुपये ट्रॉली हो चुकी है।

मीना देवी - स्थानीय कुंभकार

मिट्टी की कीमत बढ़ने से कारोबार प्रभावित हो रहा है। मुनाफा बेहद कम हो गया है। मिट्टी के बर्तन महंगे होने की वजह से लोग प्लास्टिक और कागज के गिलास खरीद रहे हैं।

गीता देवी- स्थानीय कुंभकार

पहले पत्तल वाली दावत होती थी। तब मिट्टी के बर्तन की काफी बिक्री होती थी। अब दावत का स्वरूप बदल गया है। दावत में मिट्टी के बर्तन के उपयोग न के बराबर होता है।

कमलेश - स्थानीय कुंभकार

गर्मी के मौसम में मटके की एडवांस बुकिंग हुआ करती थी। हर घर में मटका खरीदा जाता था। अब घर-घर में फ्रीज और वाटर कूलर हो गए हैं। मटके का काम खत्म हो गया है।

रज्जो- स्थानीय कुंभकार

अब तो कुंभकारों का काम केवल चाय के कुल्हड़ के सहारे चल रहा है। हर घर में मिट्टी के बर्तन के नाम पर केवल कुल्हड़ ही बनाए जा रहे हैं। कुल्हड़ से ही कारोबार चल रहा है।

कुसुम - स्थानीय कुंभकार

मिट्टी के बर्तन बेचकर ज्यादा आमदनी नहीं हो पाती है। घर के खर्च और बच्चों की पढ़ाई भी नहीं हो पा रही है। सरकार को हमारी मदद के लिए आगे आना चाहिए।

रजनी- स्थानीय कुंभकार

इस काम में अब ज्यादा मुनाफा नहीं है। इस वजह से घर से बच्चे इस काम में आना नहीं चाहते हैं। नई पीढ़ी का इस काम से मोहभंग हो चुका है। बच्चे अब नौकरी कर रहे हैं।

संतो- स्थानीय कुंभकार

बर्तन पकाने का खर्चा भी काफी बढ़ गया है। बर्तन रखने और पकाने के लिए भी पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाता है। यही हालात रहे तो हमें ये काम बंद करना पड़ जाएगा।

पूजा - स्थानीय कुंभकार

जिले में करीब 8 हजार कुंभकार हैं। सभी के सामने इसी तरह की दिक्कत हैं। ये प्राचीन काम अब बंदी की कगार पर है। सरकार से भी कोई सुविधा और सहूलियत नहीं मिल पा रही है।

किरन देवी - स्थानीय कुंभकार

मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुंभकारों को काली मिट्टी, पीली मिट्टी और चीला मिट्टी की जरूरत पड़ती है। आबादी क्षेत्र बढ़ने से मिट्टी का मिलना भी मुश्किल होता जा रहा है।

उर्मिला देवी - स्थानीय कुंभकार

कारोबार की खराब हालात देखकर नई पीढ़ी का इस काम से मोहभंग हो गया है। कुंभकारों के बच्चे अब नौकरी कर रहे हैं। सुविधाएं मिलेंगी तभी कारोबार जिंदा रह पाएगा।

मंजू देवी -स्थानीय कुंभकार

सरकार से मदद नहीं मिली तो हाथ से मिट्टी को आकार देने वाले कुंभकारों की कला जल्दी ही दम तोड़ देगी। मेरी मांग है कि हम सभी कुंभकारों को इलेक्ट्रिक चाक दी जाए।

यशोदा - स्थानीय कुंभकार

पहले के समय में लोग मिट्टी के दीपक खरीदा करते थे। अब लोग इलेक्ट्रिक लाइट और झालरों का इस्तेमाल करते हैं। इसके कारोबार पर बड़ा असर पड़ा है। कारोबार खत्म होने की कगार पर है।

मधु- स्थानीय कुंभकार

एक दशक पहले तक मिट्टी के बर्तनों खासकर मटके व सुराही के एडवांस आर्डर रहते थे। अब मजदूरी निकालना भी मुश्किल हो गया है। बर्तनों के खरीदार ही नहीं मिल रहे हैं।

रामवती देवी- स्थानीय कुंभकार

प्रदेश में प्लास्टिक पर बैन लगने के उम्मीद जगी थी की बाजार में मिट्टी के कुल्हड़ की मांग बढ़ेगी । कुंभकारों को लाभ मिलेगा। कागज के गिलास ने कुल्हड़ के बाजार चौपट कर दिया है।

फूलवती देवी - स्थानीय कुंभकार

भट्टियां एकदम खत्म हो चुकी हैं। बर्तन पकाने के लिए कंड़े(उपले) का इस्तेमाल करना पड़ता है। उपले के लिए भी कुंभकारों को कीमत चुकानी पड़ती है। मुनाफा काफी कम हो गया है।

भारती देवी-स्थानीय कुंभकार

कुछ साल पहले सरकार ने मिट्टी के लिए जमीन के पट्टे किए थे। अब उन जमीनों पर लोगों ने कब्जा कर लिया है। मिट्टी मिल पाना बेहद जटिल हो गया है। मिट्टी मिले तो बात बने।

ओमवती देवी - स्थानीय कुंभकार

पहले काफी संख्या में लोग दूध पिया करते थे। तब कुल्हड़ की मांग रहती थी। अब युवा वर्ग को्ड्रिरंग पीना पसंद करता है। इससे दूध के साथ कुल्हड़ की डिमांड भी काफी कम हो गई है।

दीपा - स्थानीय कुंभकार

पुलिस की वजह से मिट्टी लाने में काफी दिक्कत होती है। खनन के नाम पर पुलिस मिट्टी के ट्रैक्टर रोक लेती है। हर चौराहे पर सुविधा शुल्क चुकाना पड़ता है। काफी दिक्कत होती है।

रामश्री देवी - स्थानीय कुंभकार

मिट्टी का काम करने वाले कुंभकारों की संख्या तेजी से कम हो रही है। सरकार ने अब भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया तो आने वाले समय से मिट्टी का बर्तन मिलना मुश्किल हो जाएगा।

ब्रजवती देवी - स्थानीय कुंभकार

कुंभकारों की हालत दिन ब दिन खराब होती जा रही है। बच्चों ने काम से दूरी बना ली है। हम जब तक हैं। तभी तक ये काम चल रहा है। नई पीढ़ी इस काम को पसंद नहीं करती है।

रामदेवी - स्थानीय कुंभकार

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