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बोले जमशेदपुर : वर्षों से सड़कों किनारे बेच रहे सब्जी, सुविधाओं के हैं मोहताज

झारखंड में तुरहा समाज के लोग सब्जी, फल और मछली विक्रेता के रूप में जाने जाते हैं। उनकी संख्या कम है, लेकिन उन्हें सरकारी सुविधाओं का लाभ नहीं मिल रहा। जाति प्रमाण पत्र न बनने के कारण वे शिक्षा और...

Newswrap हिन्दुस्तान, जमशेदपुरTue, 25 Feb 2025 05:08 AM
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बोले जमशेदपुर : वर्षों से सड़कों किनारे बेच रहे सब्जी, सुविधाओं के हैं मोहताज

भारत में प्रत्येक समुदाय की अपनी एक पहचान है और कई व्यवसाय पारंपरिक रूप से इनसे जुड़े होते हैं। इसी तरह शहर में तुरहा समाज के लोग सब्जी, फल और मछली विक्रेता के रूप में जाने जाते हैं। झारखंड में इनकी संख्या सीमित है। इसके बावजूद उन्हें न तो अल्पसंख्यक होने का लाभ मिल पा रहा है और न ही सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं का कोई फायदा। समाज के लोगों ने हिंदुस्तान को अपनी समस्या बताई और सरकार से समाधान की मांग की। सड़कों के किनारे सब्जी बेचने वाले ज्यादातर लोग तुरहा समाज के होते हैं, जिनका मुख्य पेशा सब्जी, फल और मछली बेचना है। इनका जीवन एक दैनिक मजदूर की तरह ही होता है। हर सुबह सड़क किनारे दुकानें लगाते हैं और शाम होते ही अपना सामान समेटकर घर लौट जाते हैं। जमशेदपुर में तुरहा समाज की कुल आबादी लगभग 2500 है, जबकि पूरे झारखंड में यह आंकड़ा 10 हजार के आसपास है। इस लिहाज से देखा जाए तो यह समाज झारखंड में अल्पसंख्यक श्रेणी में आता है। लेकिन उन्हें न तो ओबीसी का लाभ मिल पा रहा है और न ही अल्पसंख्यक समुदाय को दी जाने वाली कोई सुविधा। तुरहा समाज के लोग मूल रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार के तराई क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं, जो रोजगार की तलाश में दशकों पहले जमशेदपुर आए थे। साल 1932 से यह समुदाय इस शहर में निवास कर रहा है, लेकिन अब तक उन्हें कोई विशेष सामाजिक या प्रशासनिक पहचान नहीं मिल पाई है। सरकारी दस्तावेज में इनका नाम दर्ज होने के बावजूद किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल रहा है। पूरे शहर में तुरहा समाज के लगभग 250 घर हैं, जो बर्मामाइंस, टेल्को, बारीगोड़ा, सोनारी आदि इलाकों में है। तुरहा समाज की आर्थिक स्थिति अत्यधिक कमजोर है, लेकिन इसके बावजूद उन्हें किसी भी सरकारी सुविधा का लाभ नहीं मिल रहा। पहले इस समुदाय के लोगों का कारोबार उनके नियंत्रण में था, लेकिन अब अन्य समुदायों के लोग भी इस क्षेत्र में उतर आए हैं। वे स्थायी दुकानें लेकर बेहतर व्यवसाय कर रहे हैं, जबकि तुरहा समुदाय के लोग अब भी सड़कों पर ही अपने व्यवसाय करने को मजबूर हैं। समाज के अध्यक्ष महेंद्र प्रसाद बताते हैं कि समाज के लोग वर्षों से सरकारी उपेक्षा के शिकार हैं। स्थानीय प्रशासन उनकी समस्याओं को गंभीरता से नहीं ले रहा, जिससे उनकी स्थिति और भी दयनीय हो रही है। कई बार सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए मांग उठी, लेकिन अबतक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। अगर सरकार इस दिशा में ध्यान दे तो इस समुदाय को मुख्यधारा में लाया जा सकता है। तुरहा समाज के लोग दशकों से संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन उनकी समस्याओं का समाधान कब होगा, यह एक बड़ा सवाल है। सरकार और प्रशासन को इस समाज की स्थिति पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, ताकि समाज के लोग समाज की मुख्यधारा में आ सकें और अपने व्यवसाय को स्थिरता प्रदान कर सकें।

साकची मछली बाजार में है वर्चस्व

पूरे शहर में तुरहा समाज के लोगों की स्थायी दुकानों की संख्या कम है, लेकिन साकची मछली मार्केट में इनका दबदबा है। यहां मछली बेचने वाले ज्यादातर व्यापारी इसी समाज से आते हैं। इसके अलावा कुछलोग शहर के अन्य हिस्सों में भी मछली बेचने का काम कर रहे हैं। लेकिन अधिकांश के पास स्थायी दुकानें नहीं हैं, इसलिए वे सड़क किनारे या फुटपाथ पर ही अपना व्यवसाय संचालित करते हैं।

नई पीढ़ी पारंपरिक व्यवसाय से हो रही दूर

यह नहीं कहा जा सकता कि इस समाज के लोग शिक्षा पर ध्यान नहीं दे रहे। बल्कि, तुरहा समाज की बच्चियां पढ़ाई में काफी आगे हैं और ज्यादातर ग्रेजुएट हो चुकी हैं। परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद कुछ युवा उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इनमें से कुछ इंजीनियर, डॉक्टर और रेलवे में कार्यरत कर्मचारी भी हैं। लेकिन सरकारी सहयोग और सुविधाओं के अभाव में अब नई पीढ़ी अपने पारंपरिक व्यवसाय से दूरी बना रही है।

जाति प्रमाण पत्र न बनने से सरकारी लाभ से वंचित

तुरहा समाज को झारखंड में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) श्रेणी में रखा गया है, लेकिन इनका जाति प्रमाण पत्र नहीं बन पा रहा। उत्तर प्रदेश में यह जाति एससी (अनुसूचित जाति) श्रेणी में आती है, लेकिन झारखंड में ओबीसी का भी लाभ नहीं मिल पा रहा। लंबे समय से प्रमाण पत्र न बन पाने के कारण युवाओं को शिक्षा और रोजगार में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है। सरकारी योजनाओं का कोई लाभ न मिलने से यह समुदाय लगातार पिछड़ता जा रहा है।

समस्या

- झारखंड में काफी कम संख्या होने के बावजूद अल्पसंख्यक होने का नहीं मिल रहा लाभ

- जाति प्रमाण पत्र न बनने के कारण किसी भी तरह की सरकारी सुविधा से हैं वंचित

- सरकार और प्रशासन द्वारा इन्हें दुकानें भी अलॉट नहीं की जाती

- झारखंड में अपनी पहचान न होने से भी समाज के लोग हैं निराश

- समाज के लोगों में एकजुटता की है कमी।

सुझाव

- तुरहा समाज के लोगों के लिए होना चाहिए अपना एक भवन

- सरकार को जाति प्रमाण पत्र बनाने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए

- तुरहा समाज के लोगों को भी दुकानें अलॉट की जानी चाहिए।

- उत्तर प्रदेश की तरह झारखंड में भी समाज को एससी श्रेणी में शामिल करना चाहिए।

- तुरहा समाज को अल्पसंख्यक दर्जा देते हुए उसका लाभ देने की है जरूरत।

तुरहा समाज के लोग काफी पिछड़े हैं। कोई सरकारी सहयोग न मिलने के कारण नई पीढ़ी अपने पुस्तैनी धंधे में नहीं आना चाहती। सरकार को इसके लिए प्रयास करने के साथ ही सरकारी सहयोग भी देना चाहिए।

महेंद्र प्रसाद, अध्यक्ष, तुरहा समाज

हमारी स्थायी दुकानें नहीं हैं, जिससे हर दिन नई जगह बैठकर धंधा करना पड़ता है। इससे परेशानी होती है।

उदय शंकर

समाज के लोगों को जाति प्रमाण पत्र नहीं मिलता, जिसकी वजह से सरकारी नौकरी में आवेदन तक नहीं कर सकते।

विनोद प्रसाद

हमारे समाज की महिलाएं भी अब आत्मनिर्भर बनना चाहती हैं, लेकिन बिना सरकारी सहयोग के यह मुश्किल है।

अरुण प्रसाद

समाज के जुड़े कारोबार में बाहरी लोग आकर हमसे अच्छा कमा रहे हैं, लेकिन हमें दुकानें नहीं मिलतीं।

बाबूलाल साह

हमारे समाज की लड़कियां पढ़ने में आगे हैं, लेकिन नौकरी मिलने में जातिगत प्रमाण पत्र की दिक्कत आती है।

संजय प्रसाद

बाजार में दुकान खोलने के लिए पूंजी की जरूरत होती है, लेकिन हमें किसी भी योजना का लाभ नहीं मिलता।

रिता देवी

सरकारी योजनाओं की सही जानकारी तक हमें नहीं मिलती, जिससे हम वंचित रह जाते हैं।

चिंता देवी

अगर सरकार छोटे व्यापारियों को मदद करे तो हमारे समाज के लोग भी व्यापार में आगे बढ़ सकते हैं।

पुतुल देवी

हमें व्यवसाय करने के लिए स्थायी जगह नहीं मिलती, जिससे हमें काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है।

दुर्गा देवी

समाज का कोई अपना भवन नहीं है, जिससे कई सामाजिक कार्यक्रम करने में दिक्कत आती है।

सुमन देवी

हम सड़कों पर व्यवसाय करने को मजबूर हैं। कई बार हमने स्थायी दुकान की मांग उठाई, पर प्रशासन की उदासीनता से जगह नहीं मिल पाई।

ममता देवी

नई पीढ़ी के लोग हमारे पारंपरिक व्यवसाय में नहीं आना चाहते। सरकार से भी कोई मदद नहीं मिलती है।

पशुपति नाथ

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