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जो कहीं नहीं होता, वही हिंदी की खूबी

किसी की आ चुकी है, किसी की आज आ रही है और किसी की कल आनी है। किसी-किसी का ‘थोकार्पण’ है। पुस्तक मेले में लेखक का ‘टशन’ निराला है। वाट्सएप मार्केट खुला है…

Hindustan लाइव हिन्दुस्तानSat, 8 Feb 2025 07:25 PM
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जो कहीं नहीं होता, वही हिंदी की खूबी

सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार

किसी की आ चुकी है, किसी की आज आ रही है और किसी की कल आनी है। किसी-किसी का ‘थोकार्पण’ है। पुस्तक मेले में लेखक का ‘टशन’ निराला है। वाट्सएप मार्केट खुला है। कोई लिख रहा है कि आज मैंने तीन पुस्तकों का लोकार्पण किया, तो कोई बताता है कि उसे कल पांच का करना है और कोई कहता है कि वह मेले की उस नंबर की दुकान पर इतने से इतने बजे तक मिलेगा, जिसको मिलना हो, वह मिल सकता है।

कोई लिख देता है कि वह सुबह से मेले के खत्म होने तक इस ‘स्टॉल’ पर रहेगा, तो कोई कहता है कि वह सुबह से रात तक यहां या वहां उपलब्ध रहेगा। आपका हीरो आपके पास और एकदम फ्री! आइए मिलिए, सेल्फी लीजिए, आशीर्वाद लीजिए, पाप मुक्त होइए, लेखक न हुआ उद्धारक हो गया। लेकिन अफसोस, एक काना कौआ तक मिलने नहीं आता।

कोई प्रकाशक खबर दे रहा है कि हमारी छह पुस्तकों का लोकार्पण अमुक दिन इस समय है। ये ये ‘बकता’ हैं, आप सादर आमंत्रित हैं। आएंगे, तो हार्दिक खुशी होगी। जिन दिनों कोई किसी से मिलकर खुश नहीं होता, उन दिनों कुछ ऐसे भी हैं, जो खुश होने के लिए आकुल हैं। मगर अपना अनुभव तो यही कहता है कि बेटा सबसे मिलना, लेखक से न मिलना। अगर मिला, तो अपनी दो-चार किलो किताबें तुम्हें थमा ही देगा। अब तुम ज्ञान के उस महाबोझ को अपने कर-कमलों में ढोते हुए मेले में कराहते फिरो!

आप बीती कह रहा हूं। जब-जब मेले में गया हूं, पांच-सात किलो के फ्री के ज्ञान के बोझ तले लदा-लदा फिरा हूं, फिर नजरें बचाकर ज्ञान की उस गठरी को किसी जगह छोड़ आया हूं, ताकि दूसरे ज्ञानी बनें। ऐसी ‘दानलीला’ हिंदी में ही होती है। यहां लेखक अपने को और अपने लेखन को एकदम ‘फ्री’ का माल समझता है। वह गिरिधर कविराय की उस कुंडली में यकीन करता है, जो कहती है : पानी बाढे़ नाव में घर में बाढे़ दाम!/ दोउ हाथ उलीचिए यही सयानो काम!! दाम की जगह ज्ञान रख दें, तो समझ आ जाएगा कि हिंदी साहित्य का ज्ञान एकदम फ्री है। यह बताता है कि कहीं आया हो या न आया हो, हिंदी में समाजवाद से लेकर साम्यवाद तक आ चुका है, जहां हरेक चीज फ्री है। रचना फ्री है, विचार फ्री है, ज्ञान फ्री है!

हिंदी का आम लेखक आज भी 19वीं सदी में रहता है। आधा जागा हुआ और आधा उनींदा। वह न पूरी तरह सोया है और न पूरी तरह जागा है। इस ‘उत्तर पूंजीवाद’ में भी वह ‘पूर्व पूंजीवाद’ में ही खर्राटें भरता है। तभी तो हिंदी के अधिकांश लेखक न अपना ‘मूल्य’ समझते हैं और न उसे जताते हैं। यह तब है, जब हिंदी का आम साहित्यकार अपनी रचना की समीक्षा कराने, उसका मूल्यांकन कराने के लिए मरा जाता है। यह कैसा अंतर्विरोध है कि एक लेखक जिस रचना का मूल्यांकन कराता है, उसी की असली कीमत, यानी उसके असली दाम नहीं समझता!

बहुत कम हिंदी लेखक अपने लेखन की कीमत (दाम) वसूलने में यकीन करते हैं। जो लेखक अपनी ऐसी कीमत की मांग करता है, वह दूसरे बहुत से लेखकों की नजरों में निरा कमर्शियल, बिजनेसमैन, बुर्जुआजी, घटिया, चीप और हीन हो जाता है। हिंदी में बिकना पाप है, ज्यादा बिकना तो और बड़ा पाप।

इधर हिंदी लेखक अपनी कथित ‘सेल्फलेस सेल्फीबाजी’ में मस्त रहता है, उधर प्रकाशक बिजनेस में बिजी रहता है। फिर एक दिन कोई हल्ला करने लगता है कि उसे रॉयल्टी नहीं मिली, तो सोशल मीडिया में एकाध दिन के लिए विवाद पैदा हो जाता है, फिर कुछ दे-लेकर वह भी निपट जाता है, जबकि पश्चिमी दुनिया में कुछ भी ‘फ्री’ नहीं होता। कहा भी गया है, ‘देअर इज नो फ्री लंच इन कैपिटलिज्म’, यानी ‘पूंजीवाद में कोई फ्री लंच नहीं होता।’ सच! जो कहीं नहीं होता, हिंदी में होता है।

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