कोरोना डायरी-13 : नौ मिनट का प्रकाश पर्व
5 अप्रैल 2020. रात 9.30 बजे । ऐसा लगता है, जैसे समूचा देश रात के नौ बजने का इंतजार कर रहा था। महानगरों की बहुमंजिला रिहायशें हों या फिर गांवों की झोपड़ियां, एकसाथ लोग अपने-अपने दरवाजों,...
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5 अप्रैल 2020. रात 9.30 बजे ।
ऐसा लगता है, जैसे समूचा देश रात के नौ बजने का इंतजार कर रहा था। महानगरों की बहुमंजिला रिहायशें हों या फिर गांवों की झोपड़ियां, एकसाथ लोग अपने-अपने दरवाजों, बालकनियों अथवा झरोखों पर निकल आए। दीप, टॉर्च, मोमबत्तियां, फ्लैश लाइटें चमक उठीं। घंटे -घड़ियाल , शंख और वाद्ययंत्र - समवेत ध्वनि , समवेत रोशनी । ऐसा दृश्य तो दीवाली पर भी देखने को नहीं मिलता ।
बहुत-सी रिहायशें ऐसी भी थीं जहां दीवाली की जगह शब-ए-बारात मनाई गई। जो इससे दूर रहे, मैं उन्हें जाति और धर्म की नज़र से नहीं देखता बल्कि एक जागृत समाज की विभिन्न धाराओं की तरह पाता हूं। हिन्दुस्तान हमेशा से असहमतियों में सहमतियों का देश रहा है। इसीलिए प्रधानमंत्री के आह्वान पर जब कुछ लोगों ने आपत्ति उठानी शुरू की थी, तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ था। जो नहीं जानते, उनको यहां बता दूं कि भारत ही नहीं, चीन, थाईलैंड, स्पेन और तमाम अन्य देशों में लोगों का हौसला बनाए रखने के लिए पिछले तीन महीनों के दौरान ऐसे अनेक प्रयोग किये जा चुके हैं। जब लोग अपने घरों में कैद हों, अदृश्य मौत उनके चारों ओर चक्कर लगा रही हो, तो संपूर्ण समाज को अवसाद से बचाने के लिए इसके अलावा तरीका भी क्या है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसमें सफल रहे हैं।क़िस्म -क़िस्म की भाषाओं , धर्मों , भूगोल और ऐतिहासिक अवधारणाओं वाले देश को दहशत और वहशत से बचाना आसान नहीं ।
जरा ध्यान दें। जब से कोरोना वायरस का हमला हुआ है, तब से वो चार बार जनता से रूबरू हो चुके हैं। पहली बार उन्होंने जनता कर्फ़्यू का आह्वान किया था। इतने बड़े देश में करोड़ों लोग अपने ऊपर ऐसी बंदिश लाद लेंगे, किसी ने सोचा न था। ठीक है, बसें बंद थीं, ट्रेन के पहिए थम गए थे, बड़े शहरों में मेट्रो और लोकल रोक दी गई थी पर लोगों के पास अपने साधन तो थे। ऐसा लगा जैसे उन्होंने घर में रहने की इच्छा बना ली थी। मैंने खुद उस दिन दिल्ली और एन.सी.आर. का सन्नाटा देखा - भोगा था।ऐसा ऐच्छिक नियमन अभी तक अपरिचित था । हमारी पीढ़ी के पत्रकारों को कर्फ़्यू का अनुभव रहा है। 1970 और 80 के दशक में उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में दंगे किसी सालाना आयोजन की तरह होते थे। 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद इन्होंने सार्वदैशिक रूप ले लिया था। यह किसी पुरानी समस्या का चोटी पर पहुंच जाना था। यहीं से ढलान शुरू हुई। बाद के सालों में झड़पें तो हुईं पर संगीनों के साये में लोगों को घरों में पाबंद कर देने की नौबत बहुत कम आई। नई पीढ़ी के लोगों ने इसका कोई अनुभव नहीं लिया था पर लॉकडाउन के बाद देश की अधिकांश जनता ने इसे मन से स्वीकार कर लिया।
लाल बहादुर शास्त्री के बाद मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिनकी बातों को देश ने जस-का-तस स्वीकार किया है। सही समय पर सही संवाद उनकी शक्ति है। अगर वे ऐसे ही असरकारी बने रहे तो उन्हें, इस बदलती दुनिया में अपनी बड़ी भूमिका निभाने से कोई रोक नहीं सकता पर कुछ लोग हैं, जो हर बात में सिर्फ धर्म खोजते हैं। ऐसे लोग हर धर्म, हर संप्रदाय में हैं।वे अधर्म की बात धार्मिक और मार्मिक अन्दाज़ में करते हैं। यह कारगुज़ारी ह्यभारत रागह्ण के विपरीत है। ऐसे लोग प्रधानमंत्री की छवि बना रहे हैं, या बिगाड़ रहे हैं?
इन्हें रोकना होगा। हालांकि , उनकी बातों से कोरोना को न रुकना था , न रुकेगा। आज के आंकड़े गवाही दे रहे हैं-
अब तक कुल मामले-3577
डिस्चार्ज केस-274
कुल मौतें- 83
माइग्रेटेड- 1
उपचाराधीन -3219
नए मामले - 505
नई मौतें - - 08
क्रमश:
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