हम क्या खोज रहे
जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? इन तमाम अस्त-व्यस्तताओं, युद्धों, राष्ट्रों के बीच संघर्ष एवं कलह का अर्थ क्या है? इस सबको जानने से पहले अपने आपको जानना जरूरी है। यह बड़ा सरल प्रतीत होता है, लेकिन है अत्यंत दुष्कर…
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जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? इन तमाम अस्त-व्यस्तताओं, युद्धों, राष्ट्रों के बीच संघर्ष एवं कलह का अर्थ क्या है? इस सबको जानने से पहले अपने आपको जानना जरूरी है। यह बड़ा सरल प्रतीत होता है, लेकिन है अत्यंत दुष्कर। यह देखने के लिए कि हमारे भीतर विचार प्रक्रिया कैसे कार्य करती है, व्यक्ति को असाधारण रूप से सतर्क होना होगा। व्यक्ति जैसे-जैसे अपने सोच-विचार, प्रत्युत्तरों एवं भावों की जटिलता के प्रति अधिक सतर्क होता जाएगा, उसकी सजगता केवल अपने प्रति नहीं, खुद से जुडे़ लोगों के प्रति भी बढ़ती जाएगी। अपने को जानने का अर्थ है, क्रियाकलाप के दौरान अपना अध्ययन करना और यही संबंध है। कठिनाई यह है कि हम इतने अधीर हैं कि बस आगे बढ़ जाना चाहते हैं।
हम किसी लक्ष्य को हासिल कर लेना चाहते हैं, और इसलिए हमारे पास अध्ययन के लिए, निरीक्षण के लिए न तो समय है और न ही अवसर। इसके विकल्प के तौर पर हमने विविध गतिविधियों, जीविकोपार्जन, बच्चों के पालन-पोषण आदि की जिम्मेदारी ले ली है अथवा विभिन्न संगठनों के दायित्वों को अपने ऊपर ओढ़ लिया है कि सोचने-विचारने के लिए, निरीक्षण के लिए, अध्ययन के लिए हमें समय ही नहीं मिलता। अत: वास्तव में प्रतिक्रिया का दायित्व हमारे ही ऊपर है, किसी दूसरे पर नहीं। समूचे विश्व में गुरुओं और उनकी पद्धतियों की ऊहापोह, किसी विषय पर आधुनिकतम पुस्तक का अध्ययन, यह सब एकदम खोखला, एकदम व्यर्थ प्रतीत होता है, क्योंकि चाहे सारे विश्व में आप घूम लें, अंत में आपको अपने तक ही आना है। चूंकि अधिकांश व्यक्ति अपने से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं, अत: अपनी विचार-प्रक्रिया, भावना और अपने कर्म को साफ-साफ देख पाना हमारे लिए अत्यधिक कठिन हो गया है।
जितना अधिक आप अपने को जानेंगे, उतनी ही अधिक स्पष्टता होगी। स्वबोध का कोई अंत नहीं है। उसमें आप किसी उपलब्धि या निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते। यह एक अनंत सरिता है। जैसे-जैसे व्यक्ति उसका अध्ययन करता है, उसमें प्रवेश करता जाता है, उसे शांति मिलती जाती है। जब मन ठहरा होता है, केवल तभी, उस शांति में ही, उस मौन में ही यथार्थ अभिव्यक्त हो सकता है। केवल तभी आनंद, सर्जनात्मक कर्म संभव होता है। मुझे ऐसा महसूस होता है कि बिना इस बोध के पुस्तकों को पढ़ना, वार्ताओं में शामिल होना, प्रचार करना बहुत बचकाना है; उसका कुछ मतलब नहीं है।
दूसरी ओर, यदि कोई व्यक्ति अपने आप को समझकर सर्जनात्मक आनंद का या ऐसी अनुभूति का एहसास कर लेता है, जो मन की उपज नहीं होती, तब शायद उसके नजदीकी रिश्तों में, और साथ ही साथ उस संसार में, जिसमें हम रहते हैं, रूपांतरण फलित होगा!
जे कृष्णमूर्ति
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