Hindi Newsओपिनियन जीना इसी का नाम हैHindustan Jeena Isi Ka Naam Hai I learned hard work from my mother and patience from nature 16 June 2024

मां से मेहनत करना सीखा, कुदरत से सहनशीलता

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस से लेकर दुनिया भर के पर्यावरणविद् लगातार कह रहे हैं कि कुदरत हमसे कुछ कह रही है, उसको सुनिए; मौसम विज्ञानी आंकडे़ पेश कर रहे हैं कि पिछले बारह महीने दर्ज...

Monika Minal सुजन चोंबा, पर्यावरणविद, Sat, 15 June 2024 10:15 PM
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मां से मेहनत करना सीखा, कुदरत से सहनशीलता

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस से लेकर दुनिया भर के पर्यावरणविद् लगातार कह रहे हैं कि कुदरत हमसे कुछ कह रही है, उसको सुनिए; मौसम विज्ञानी आंकडे़ पेश कर रहे हैं कि पिछले बारह महीने दर्ज इतिहास के सबसे गरम माह रहे हैं, मगर वातानुकूलित कमरों में बैठे इस ग्रह के नीति-नियंता किसी की नहीं सुन रहे और इसका खामियाजा हाशिये पर जीने वाले इंसान ही नहीं, बेशुमार बेजुबान जीव भी भुगत रहे हैं। ऐसे में, सुजन चोंबा जैसे लोगों की कोशिशें प्रेरित करती हैं कि हमको अपने प्रयास जारी रखने चाहिए। 
केन्या की किरियांगा काउंटी में 41 साल पहले पैदा हुईं सुजन का बचपन काफी अभावों में बीता। चूंकि वह अकेली मां की संतान हैं, इसलिए घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी मां के ही कंधों पर थी। एक रिश्तेदार से किराये पर छोटा-सा भूखंड लेकर वह उसमें पहाड़ी मिर्च और फ्रेंच बीन्स उगाया करती थीं। लिहाजा, उनका ज्यादातर वक्त खेतों में बीतता। ऐसे में, सुजन की परवरिश उनकी नानी ने ही की। मां हाड़तोड़ मेहनत तो करतीं, मगर उस कमाई से जैसे-तैसे घर चल पाता था। गुरबत को अक्सर बागी होने से जोड़ दिया जाता है, पर यदि परवरिश अच्छी हो, तो वह आपको संजीदा बनाती है। सुजन का पालन-पोषण ऐसे ही संवेदनशील माहौल में हुआ। मां ने खुद तो स्कूल का मुंह नहीं देखा था, मगर बेटी को उन्होंने हमेशा प्रोत्साहित किया कि गरीबी की खाई से बाहर निकलने की अकेली राह शिक्षा है। नन्ही सुजन स्कूल के साथ-साथ जिंदगी की किताब से भी सबक सीखती गईं। जब वह नौ साल की थीं, तो मां ने सोचा कि बेटी को बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया जाए, तो इसका भविष्य संवर जाएगा। पर जब सुजन को लेकर वह स्थानीय बोर्डिंग स्कूल गईं, तो उनके कपड़ों की हालत देखकर कर्मचारियों ने उन्हें दुत्कार दिया। 
मगर कोई मां कहां हिम्मत हारती है! नतीजतन, सुजन को पश्चिमी केन्या के एक बोर्डिंग स्कूल में दाखिला मिल गया। मां-बेटी, दोनों बहुत खुश थीं। मगर जल्द ही वह वक्त भी आ गया कि मां के पास बोर्डिंग की फीस चुकाने लायक पैसे न थे और सुजन को वह स्कूल छोड़ना पड़ा। वह वापस किरियांगा के सरकारी हाईस्कूल आ गईं। उस स्कूल के सभी वरिष्ठ छात्रों को एक-एक भूखंड दिया गया था, जिसमें उन्हें कोई फसल उगानी थी। यह उनके पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा था। चूंकि किरियांगा की जलवायु ठंडी है, इसलिए सुजन ने अपने भूखंड में गोभी लगाए। उन्होंने जैविक खेती का प्रयोग किया और रासायनिक कीटनाशकों से परहेज बरता। सुजन की फसल काफी अच्छी हुई थी। 
सुजन पर वांगारी मथाई (नोबेल विजेता) की वन संरक्षण मुहिम का भी गहरा असर पड़ा, बल्कि केन्या की युवा पीढ़ी उनकी बातों से गहरे प्रभावित थी। मथाई यही मंत्र दोहरातीं कि प्रकृति हम सबकी है। बहरहाल, हाईस्कूल के बाद सुजन कानून की पढ़ाई करना चाहती थीं, मगर एक प्वॉइंट कम रह जाने के कारण विश्वविद्यालय ने उन्हें वानिकी पाठ्यक्रम में दाखिला दिया। शायद नियति ने इसी के लिए उन्हें चुना था। डिग्री हासिल करते ही सुजन को ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रो फॉरेस्ट्री’ (आईसीआरएएफ) में नौकरी मिल गई और कुछ ही वर्ष में उन्हें ‘री-ग्रीनिंग अफ्रीका’ जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रम का नेतृत्व करने का मौका मिल गया। इस कार्यक्रम के तहत उनकी टीम को अफ्रीका की दस लाख हेक्टेयर बेकार भूमि को उपयोग योग्य बनाने में सफलता मिली।
सुजन की जिंदगी से आर्थिक अभाव तो खत्म हो चुका था, मगर कृषि-वानिकी के क्षेत्र में ज्ञान हासिल करने के लिए अभी काफी कुछ बाकी था। लंदन की बैंगोर यूनिवर्सिटी से ‘सस्टेनेबल टॉपिकल फॉरेस्ट्री’ में मास्टर करने का अवसर भी सामने था, पर दुविधा यह थी कि सुजन उस वक्त एक बेटे की अकेली मां थीं और बार-बार उनका अपना बचपन सामने आ जाता था। ऐसे में, सुजन की मां ने बेटी का हौसला बढ़ाया कि ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते। बेटे को मां के हवाले कर वह लंदन चली गईं। वहां से डिग्री लेकर वह जलवायु परिवर्तन की शोधार्थी के रूप में ‘आईसीआरएएफ’ में वापस लौट आईं। उन्होंने जलवायु परिवर्तन के बारे में अफ्रीका के कई बडे़ नेताओं को महत्वपूर्ण सलाह दी, ताकि वे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पूरी संजीदगी से अपने मुद्दे उठा सकें।
अब तक हासिल अनुभवों ने सुजन को इतना सुकून दिया था कि उन्होंने इस विषय में कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी से पीएचडी भी कर डाली। इन अध्ययनों ने प्रामाणिक आंकड़ों के साथ पुष्ट किया कि मानव निर्मित त्रासदी ही नहीं, कुदरती आपदाओं का भी सबसे गहरा असर महिलाओं और बच्चों पर पड़ता है। इसलिए सुजन केन्या व दीगर अफ्रीकी देशों में जैविक खेती व पर्यावरण संरक्षण के लिए स्थानीय लोगों को जागरूक करने लगीं और उन्हें स्थानीय मृदा व जलवायु के अनुकूल वृक्ष लगाने तथा जल-संरक्षण के लिए प्रशिक्षित करने में जुट गईं। शासन-प्रशासन में बैठे लोगों को भी उन्होंने इस दिशा में कई बड़े कदम उठाने को प्रेरित किया। 
इन दिनों सुजन ‘वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट’ की निदेशक हैं, जिनके तहत लगभग 100 लोगों की टीम कार्य कर रही है। सुजन के कार्यों की अहमियत को देखते हुए साल 2022 में उन्हें दुनिया की 25 शीर्ष महिला पर्यावरण विज्ञानियों में शामिल किया गया। पिछले साल बीबीसी  ने उन्हें दुनिया की 100 प्रभावशाली महिलाओं में गिना था। 
बकौल सुजन, ‘राजधानियों में बैठे शासक अक्सर स्थानीयता की उपेक्षा करके नीतियां बनाते हैं, जिनमें टिकाऊ समाधान नहीं है। प्रकृति ने अपने लिए विविधता को चुना है, उसे इसी रूप में सुरक्षित-संरक्षित किया जा सकता है।’ काश! सुजन जैसे कुछ लोग हर बस्ती, हर शहर में सक्रिय हो जाएं, तो शायद कुदरत के इशारे भी यूं उपेक्षित नहीं रहेंगे। 
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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