सिर्फ सियासी नुमाइंदगी से बदलेगी औरतों की स्थिति
अमेरिका जैसा विकसित देश हो या पाकिस्तान सरीखा पिछड़ा मुल्क, औरतें हर जगह अब मुखर होकर राजनीतिक-सामाजिक सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांग रही हैं, बल्कि मजबूत दावेदारी पेश कर रही हैं। ऐसे में...
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अमेरिका जैसा विकसित देश हो या पाकिस्तान सरीखा पिछड़ा मुल्क, औरतें हर जगह अब मुखर होकर राजनीतिक-सामाजिक सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांग रही हैं, बल्कि मजबूत दावेदारी पेश कर रही हैं। ऐसे में, अफगानिस्तान से सटे पाकिस्तान के लोअर दीर इलाके की शाद बेगम जिस तरह तालिबानी धमकियों के बावजूद महिलाओं को खुदमुख्तार बनाने में जुटी हैं, वह सचमुच सराहनीय है और दुनिया ने उचित ही उन्हें सम्मानित किया है। खैबर पख्तूनख्वा सूबे के दीर जिले में करीब 45 साल पहले शाद पैदा हुईं। पाकिस्तान की कुलजमा साक्षरता जब आज 60 फीसदी से कम है, तो चार दशक पहले दीर इलाके की क्या स्थिति रही होगी, यह आसानी से अंदाज लगाया जा सकता है। खासकर तब, जब सन् 1969 तक यह एक स्वायत्त रजवाड़ा हुआ करता था और वहां नवाब शाहजहां खान की निजामत थी। नवाब अपनी रिआया को तालीम की रोशनी से दूर रखना चाहते थे, क्योंकि उन्हें पढ़-लिखकर लोगों के बागी होने का खौफ सताया करता था। यही वजह है कि पाकिस्तान में विलय के एक दशक बाद भी दीर के महज पांच प्रतिशत लड़कों और एक फीसदी लड़कियों को स्कूल का मुंह देखना नसीब हुआ था। शाद की खुशकिस्मती थी कि वह उन एक फीसदी लड़कियों में थीं। उनके पिता एक डॉक्टर थे और समाज में उनकी बड़ी इज्जत थी। वह एक लोक-कल्याणकारी संगठन ‘इदारा खिदमत-ए-खल्क’ भी चलाते थे।
पांच भाइयों की इकलौती बहन शाद उनके लिए ऊपर वाले की रहमत ही थीं। पिता लड़कियों की शिक्षा के हामी थे, लिहाजा भाइयों ने भी शाद के स्कूल जाने पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया। सबकी लाड़ली शाद स्कूल का सबक पूरा करने के बाद अक्सर पिता के क्लिनिक पहुंच जाया करतीं, जहां इलाज के साथ-साथ लोगों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं में भी पिता को गहरी दिलचस्पी लेते देखकर उन्हें काफी अच्छा लगता। नन्ही शाद खिदमत-ए-खल्क के जलसों में भी अपने वालिद के साथ जाया करतीं। वहां होने वाली तकरीरों ने उनकी शख्सियत पर गहरा असर डाला।
मगर जब शाद सोलह की हुईं, तो एक दिन अब्बा ने उनसे कहा कि अब वह सार्वजनिक जलसों में उनके साथ आना बंद कर दें। परिवार के ज्यादातर सदस्य इस फैसले से खुश थे, मगर शाद को लगा, जैसे किसी ने कैद की सजा सुना दी हो। वह बहुत दुखी हुईं। आखिर दो साल बाद पिता ने खुद ही कहा कि वह एनजीओ में महिलाओं के मसलों पर गौर किया करें। औरतें तरह-तरह की तकलीफें लेकर आतीं। किसी को पढ़ने की इजाजत नहीं मिल रही थी; किसी का पति उसे बुरी तरह पीटता था; कोई पिता बेटा न होने की सूरत में बेटियों को हिस्सा देने के बजाय पूरी जायदाद भतीजों के नाम कर देता, तो कहीं इज्जत के नाम पर बेटी के कत्ल का मसला होता।
पिता और फरियादी औरतों के बीच संवाद का पुल बनीं शाद ने खुद से सवाल करना शुरू किया कि आखिर उनकी पहचान क्या है? क्या औरत होना कोई जुर्म है? पिता समझाते कि लड़की होने में बुराई नहीं, समाज के नजरिये में समस्या है। वह औरत को इंसान का दर्जा देने को भी तैयार नहीं। शाद के दिमाग में यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी थी कि औरतों को उनके परिवार में इज्जत का मुकाम तभी हासिल होगा, जब वे मिलकर अपने हक की लड़ाई खुद लड़ेंगी। शाद ने 1994 में ‘एसोसिएशन फॉर बिहेवियर ऐंड नॉलेज ट्रांसफॉर्मेशन’ (एबीकेटी) नाम से एक गैर-लाभकारी संगठन शुरू किया।
शाद ने कई लड़कियों और औरतों को अपने साथ जोड़ा, मगर यह सब इतना आसान न था। मिसाल कायम करने के लिए उन्होंने 2001 के स्थानीय निकाय चुनाव में बतौर आजाद उम्मीदवार उतरने का फैसला किया। तमाम बाधाओं के बावजूद शाद जीत गईं। मगर निर्वाचित परिषद में भी महिला प्रतिनिधियों को मर्द नुमाइंदों के साथ बैठने की इजाजत नहीं थी। वे एक अलग कमरे में बैठाई जातीं और परिषद के फैसलों में उनकी कोई रजा शामिल नहीं होती।
अगले छह सालों में शाद ने औरतों की वास्तविक समस्या पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने अपने क्षेत्र में पांच चापाकल लगवाए, दो सूखे कुओं को पुनर्जीवित कराया। इससे करीब पांच हजार परिवारों की साफ पानी तक पहुंच सुनिश्चित हुई। फिर सभी महिला पार्षदों के साथ मिलकर उन्होंने कौंसिल को बाध्य किया कि उन्हें मर्दों के बराबर बैठने दिया जाए और नियमों के निर्धारण में उनकी भी राय ली जाए। इस बीच उन्होंने एमए व एमबीए की डिग्री भी हासिल की। मगर 2009 में तालिबान की जानलेवा धमकियों के मद्देनजर उन्हें अपने बच्चों को उनके दादा-दादी के पास छोड़ दीर से निकलना पड़ा। वह सदमे में थीं कि अब कैसे आगे का काम करेंगी? कई सामाजिक कार्यकर्ताओं का कत्ल हो चुका था। लाखों की संख्या में लोग स्वात, दीर व आस-पास के जिलों से पलायन कर पेशावर आ गए थे। शाद ने वहां भी ्त्रिरयों की जरूरतों की तरफ प्रशासन का उपेक्षित रवैया महसूस किया।
शाद जानती थीं, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं में औरतों की न्यूनतम भागीदारी के कारण ही शासन का यह रवैया है। उन्होंने अपना पूरा ध्यान राजनीतिक क्षेत्र में महिला नेतृत्व तैयार करने पर केंद्रित किया, ताकि ्त्रिरयां अपने भविष्य के लिए आवाज बुलंद कर सकें। साल 2015 के स्थानीय निकाय के चुनावों के मद्देनजर उन्होंने लगभग 300 युवा महिलाओं को राजनीतिक प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। नतीजे चमत्कारिक निकले। उनमें से पचास फीसदी ने चुनावी फतह हासिल की। ज्यादातर महिला पार्षद अपने बजट का बड़ा हिस्सा औरतों की शिक्षा और सेहत सुधारने से जुड़ी योजनाओं पर खर्च कर रही हैं। जिस दीर इलाके में साल 2015 के चुनाव में 100 से भी कम महिलाओं ने वोटर लिस्ट में अपना नाम दर्ज कराया था, वहां आज 93,000 से ज्यादा महिला मतदाता हैं।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह
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