नेपाली महिलाओं की चिंता काठमांडू से न्यूयॉर्क ले गई
इस दुनिया में रंग, जाति, नस्ल, जेंडर, भाषा, मजहब और न जाने किन-किन आधारों पर इंसान-इंसान के बीच भेदभाव होता है। मगर संसार की सबसे बड़ी आबादी जिस एक बुनियाद पर शोषण और दमन का शिकार है, वह है लैंगिक...
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इस दुनिया में रंग, जाति, नस्ल, जेंडर, भाषा, मजहब और न जाने किन-किन आधारों पर इंसान-इंसान के बीच भेदभाव होता है। मगर संसार की सबसे बड़ी आबादी जिस एक बुनियाद पर शोषण और दमन का शिकार है, वह है लैंगिक भेदभाव। आज भी एक अश्वेत महिला को अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के लिए अपने पुरुष प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले न सिर्फ अतिरिक्त प्रयास करने पड़ रहे हैं, बल्कि अपने चुनावी अभियान में मुखरता के साथ यह मांग करनी पड़ रही है कि अमेरिकी औरतों को अपने शरीर पर पूरा हक मिले, यानी उन्हें प्रजनन या गर्भपात का कानूनी अधिकार मिले! ऐसे में, नेपाल जैसे पिछडे़ देश में ्त्रिरयों के साथ कैसा सुलूक होता होगा, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मगर बंदना राणा जैसी महिलाओं को सलाम कि उन्होंने वहां भी बदलाव का बिगुल बजा दिया है।
आज से लगभग 63 साल पहले काठमांडू के एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी बंदना का बचपन बेहद सामान्य था। चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी होने के नाते उन्हें माता-पिता का भरपूर स्नेह मिला, मगर उस दौर के मध्यमवर्गीय परिवारों की बच्चियों की तरह बंदना की अपनी कोई खास महत्वाकांक्षा नहीं थी। जब भी कोई पूछता कि बड़ी होकर क्या बनना चाहोगी, तो उनका एक ही जवाब होता, जिससे मां-पापा खुश रहें। बंदना को हिंदी फिल्में बहुत अच्छी लगतीं। किशोरावस्था में वह यही सोचतीं कि उन्हें भी एक सजीला नौजवान मिलेगा, जिससे वह शादी करेंगी। करियर और जिंदगी के मकसद से जुड़े सवाल उनके जेहन में कहीं नहीं थे।
बेफिक्री की उसी उम्र में एक दिन बंदना के जीवन में वह नैसर्गिक घटना घटी, जिसने उनकी सोच पर गहरा असर डाला। मां ने पहले कभी उनसे मासिक धर्म की चर्चा नहीं की थी और जब यह मौका आया, तो सीधे यह आदेश सुनने को मिला कि ‘अगले 21 दिनों तक अंधेरी कोठरी से बाहर मत निकलना। सूरज की किरणों और किसी मर्द पर तुम्हारी छाया नहीं पड़नी चाहिए, क्योंकि तुम अपवित्र हो अभी।’ उन 21 दिनों तक बंदना छोटे भाइयों को भी नहीं देख सकीं। इस सामाजिक रूढ़ि ने पहली बार बंदना को एहसास कराया कि वह अपने भाइयों से अलग इंसान हैं। उनके भीतर हीनता-ग्रंथि पैदा हो गई।
उस घटना के बाद बंदना के लिए सब कुछ बदल गया था। 21 दिनों की काल-कोठरी से निकलने के बाद वह पिता और भाइयों के साथ पहले की तरह बेतकल्लुफ फिर कभी नहीं हो सकीं। मां ने बंदना और उनकी छोटी बहन के लिए एक समय-सीमा तय कर दी थी कि वे शाम सात बजे के बाद घर के बाहर न खेलें, जबकि दोनों भाइयों पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं थी। मां ने तो वही किया था, जो सामाजिक चलन था। मगर इस लैंगिक भेदभाव ने बंदना को तभी से मथना शुरू कर दिया। इसके विरुद्ध एक बगावत उनके भीतर आकार लेने लगी थी।
नेपाल के सबसे प्रतिष्ठित त्रिभुवन विश्वविद्यालय से 1983 में अंग्रेजी साहित्य में एमए करने के बाद बंदना ने उसी स्कूल में स्वैच्छिक तौर पर पढ़ाना शुरू कर दिया, जहां से उन्होंने खुद पढ़ाई की थी। किताबें पढ़ने और बच्चों को कहानियां सुनाने में उन्हें खूब आनंद आता। बंदना इस बीच दांपत्य जीवन में प्रवेश कर चुकी थीं, बल्कि दो बच्चियों की मां भी बन चुकी थीं। मगर उन्हें एक ऐसे क्षेत्र की तलाश थी, जिसमें महिलाओं से जुड़ी वर्जनाओं को तोड़ते हुए वह अपने देश और समाज को पैगाम दे सकें कि लिंग के आधार पर भेदभाव जुल्म है।
उन्हीं दिनों नेपाल टेलीविजन की स्थापना हुई थी। यह एक नया माध्यम था, जिसके प्रति लोगों में जबर्दस्त दीवानगी थी। हालांकि, तब सिर्फ सरकार नियंत्रित नेपाल टेलीविजन ही वजूद में आया था और महज चार घंटे का प्रसारण हुआ करता था। बंदना को लगा कि यह उनके मिजाज के मुफीद क्षेत्र है। अकादमिक रिकॉर्ड और प्रस्तुतिकरण के अंदाज ने बतौर युवा पत्रकार नेपाल टेलीविजन में उन्हें प्रवेश दिला दिया, मगर हर तरफ से हतोत्साहित करने वाली नसीहतें मिलने लगीं कि ‘यह मर्दों के वर्चस्व वाला क्षेत्र है, तुम कामयाब नहीं हो पाओगी।’ वाकई तब वहां गिनी-चुनी महिलाएं ही थीं।
मगर बंदना ने पूरी गंभीरता से अपने करियर को लिया, वरिष्ठ सहयोगियों का रवैया सहयोग भरा था। एक साल बाद ही 1987 में उन्हें रेडियो नीदरलैंड्स से स्कॉलरशिप पर ‘न्यूज ऐंड करेंट अफेयर्स’ में पीजी डिप्लोमा करने का मौका मिल गया। बंदना तब 25 के आस-पास थीं। नीदरलैंड में ही एक प्रोफेसर ने उनसे किसी थ्योरी पर अपना विचार रखने को कहा। बंदना के लिए यह किसी ताज्जुब से कम न था। पहली बार किसी ने उनके दिमाग को अहमियत दी थी। उनसे उनकी राय पूछी थी। शुरुआती हिचक के बाद जब बंदना ने जवाब देना शुरू किया, तो उनके हिस्से भरपूर तारीफें आईं।
नीदरलैंड से एक नई बंदना काठमांडू लौटी थीं- बेबाक, बातौफीक और आत्मविश्वास से भरपूर! वह जान चुकी थीं कि उनसे बेहतर शिक्षा और अवसरों वाली हजारों नेपाली महिलाएं अपनी क्षमता पहचाने बगैर इस दुनिया से रुखसत हो जाती हैैं। बंदना ने तय किया कि वह नेपाली महिलाओं की आवाज बनेंगी। अपनी पेशेवर पत्रकारिता के जरिये वह यह काम करने लगीं। हिंसा की सतायी महिलाओं के लिए उन्होंने ‘साथी’ नाम से देश में पहली गैर-सरकारी पनाहगाह शुरू की। नेपाली महिलाओं के अधिकारों और कल्याण के लिए बंदना ने विभिन्न मंत्रालयों को नीतिगत पहल के लिए प्रेरित किया।
साल 2017 में बंदना महिलाओं के साथ भेदभाव खत्म करने वाली संयुक्त राष्ट्र की समिति (सीईडीएडब्ल्यू) की सदस्य चुनी गईं। वह इस कमिटी की उपाध्यक्ष भी रहीं। इस पद पर पहुंचने वाली बंदना पहली नेपाली महिला हैं। पिछले महीने उन्हें एक बार फिर इस विश्व-संस्था का सदस्य चुना गया है। न्यूयॉर्क में उनके पक्ष में 146 देशों ने वोट डाले। बंदना साल 2028 तक अब ्त्रिरयों के मुद्दों को आवाज देती रहेंगी।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह
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