Hindi Newsओपिनियन जीना इसी का नाम हैhindustan jeena isi ka naam hai column 4 august 2024

लाखों आदिवासी परिवारों का खैरख्वाह गांधीवादी

नीलेश ने लोक-भागीदारी से झाबुआ में पेयजल मिशन का काम शुरू करने का फैसला किया। समस्या यह थी कि आदिवासी समाज से संवाद कैसे कायम किया जाए, क्योंकि बाहरी दुनिया से उनका रिश्ता या तो शोषण का था या...

Pankaj Tomar नीलेश देसाई, सामाजिक कार्यकर्ता, Sat, 3 Aug 2024 09:19 PM
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लाखों आदिवासी परिवारों का खैरख्वाह गांधीवादी

महात्मा गांधी ने दशकों पहले भारत के गांवों को स्वावलंबी बनाने की वकालत की थी, मगर आजादी का अमृतकाल मना रहे देश के साढे़ छह लाख से भी अधिक गांवों में से कितने गांव आत्मनिर्भर हुए, इसकी हकीकत शहरों में पसरी झुग्गी बस्तियां बता देती हैं। निस्संदेह, गांवों की खुदमुख्तारी की कीमत पर शहरी चकाचौंध कायम हुई। ऐसे में, जब नीलेश देसाई जैसे गांधीवादी अचानक राष्ट्रीय फलक पर सुर्खरू होकर सामने आ जाते हैं, तब एक संबल मिलता है कि बापू के पहरुए अभी चूके नहीं हैं। प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित नीलेश ने दशकों तक हिंसक संघर्ष में लिथडे़ रहे झाबुआ (मध्य प्रदेश) व अन्य जिलों के आदिवासियों की जो खिदमत की है, उसके लिए यह प्रदेश ही नहीं, समूचा देश उनका कर्जदार रहेगा। 
सन् 1960 के दशक में ही नीलेश के पिता दिनकर देसाई वलसाड (गुजरात) को छोड़कर रतलाम आ बसे थे। दिनकर मजदूर संघ के नेता थे, इसलिए सामाजिक सरोकार के संस्कार नीलेश को अपने घर से ही मिले। रतलाम में ही वह पले-बढे़ और अपनी शिक्षा हासिल की। जब वह 12 साल के थे, तब रेलवे और उद्योगों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल हुई थी। उस मजदूर आंदोलन के दौरान काफी सारे श्रमिक नेताओं और आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया था। बड़ी संख्या में मजदूरों को निलंबित कर दिया गया था। गिरफ्तार होने वालों में नीलेश के पिता भी थे। कहते हैं, दुख साझेदारी सिखाता है, सुख स्वार्थी बनाता है। किशोर मन में उन्हीं दिनों दुखियों के लिए लड़ने का बीज पड़ गया था।
स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद नीलेश ‘इंदौर स्कूल ऑफ सोशल वर्क’ पहुंचे, जहां से उन्होंने मास्टर्स की डिग्री हासिल की। अकादमिक ज्ञान तो हासिल हो गया था, ऊंची डिग्रियां भी मिल गई थीं, मगर सामाजिक क्षेत्र में काम करने के लिए उन्हें व्यावहारिक प्रशिक्षण की अधिक जरूरत थी। लिहाजा, वह राजस्थान के तिलोनिया गांव पहुंचे, जहां उन्हें अरुणा राय की संस्था में जमीनी कौशल की बारीकियों और उनकी अहमियत के बारे में पता चला। तिलोनिया से विदा होते समय नीलेश को एक मंत्र दिया गया, जिसे वह कभी भुला न सके, बल्कि उसकी रोशनी में ही उन्होंने सेवा और सफलता के नए-नए सोपान गढ़े हैं। वह मंत्र था, ‘किसी भी सामुदायिक समस्या का निदान स्थानीय ज्ञान और स्थानीय नेतृत्व से ही सबसे बेहतर हो सकता है।’
सन् 1987 में नीलेश देसाई तिलोनिया से सीधे झाबुआ पहुंचे। यह आदिवासी बहुल इलाका उन दिनों देश के सबसे अपराध-ग्रस्त क्षेत्रों में गिना जाता था। यही नहीं, गंभीर पेयजल संकट से जूझने वाले भारत के शीर्ष 10 जिलों में एक झाबुआ भी था। इन सब वजहों से वहां से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन जारी था। नीलेश ने हालात को बदलने के लिए इसे अपनी कर्मस्थली बनाने का निर्णय किया। उन्होंने पेटलावद तहसील में ‘संपर्क’ नाम से एक गैर-सरकारी संगठन की नींव रखी। संयोग था कि सरकार ने उन्हीं दिनों इन दस जिलों में जल-संरक्षण के लिए एक विशेष योजना बनाई थी। इसी योजना के तहत नीलेश ने लोक-भागीदारी से झाबुआ में पेयजल मिशन का काम शुरू करने का फैसला किया। समस्या यह थी कि आदिवासी समाज से संवाद कैसे कायम किया जाए, क्योंकि बाहरी दुनिया से उनका रिश्ता या तो शोषण का था या अविश्वास का। तब तिलोनिया का सबक याद आया। 
नीलेश ने तिलोनिया में देखा था कि नुक्कड़ नाटकों के जरिये स्थानीय समुदायों से बेहतर संवाद किया जा रहा है। उन्होंने झाबुआ में भी कुछ आदिवासी नौजवानों को भरोसे में लिया और उन्हें नुक्कड़ नाटकों के लिए प्रशिक्षित किया। इन नाटकों ने भील समाज पर जादुई असर डाला। लोग इन नुक्कड़ नाटकों को देखने के लिए इकट्ठा होने लगे और बडे़ स्तर पर बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया। इन बैठकों में भागीदारी करने वाले यह तय करने लगे कि किस जगह पर कैसा ढांचागत निर्माण होना चाहिए और उसमें वे क्या भूमिका निभाएंगे! बापू के ग्राम-स्वराज का दर्शन जमीन पर फलीभूत होने लगा था। नीलेश ने आदिवासियों को यह एहसास कराया कि वह उनके लिए नहीं, बल्कि उनके साथ काम कर रहे हैं।
गांव-गांव में पुराने कुओं-तालाबों को गहरा करने का काम शुरू हो गया, उनसे निकली मिट्टी को किसानों के खेतों में फैलाया जाने लगा, जिससे उनकी उर्वरता बढ़ने लगी। फसलों की उपज बढ़ी, तो बाजार में बेचने की जुगत भी भिड़ाई गई। नीलेश अब तक अच्छी तरह जान गए थे कि जिस काम को लोग अपना समझते हैं, उसके क्रियान्वयन में न सिर्फ उनका पूरा तजुर्बा और ज्ञान शामिल हो जाता है, बल्कि वे उसकी निगरानी भी करते हैैं और वह काम तेजी से पूरा होता है। सफलता भी अधिक मिलती है। गांधी कहते थे कि जब तक गांव स्वावलंबी न होंगे, तब तक भारत स्वावलंबी नहीं होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था को आज भी कृषि व ग्रामीण  मांगों में बढ़ोतरी की कितनी जरूरत पड़ती है, यह बताने की जरूरत नहीं है। इसलिए नीलेश ग्रामोद्धार में जुट गए।
धीरे-धीरे उन्होंने गांवों में टिकाऊ कृषि, शिक्षा एवं स्वास्थ्य देखभाल, लैंगिक अधिकारों, वित्तीय सेवा से जुड़े कार्यक्रमों की भी शुरुआत की। उनकी संस्था के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे कंप्यूटर चलाने के साथ-साथ पशुपालन, हस्तशिल्प और बीजों को सहेजने के गुर भी सीखते हैं। आज मध्य प्रदेश के नौ जिलों के 2,000 से भी अधिक गांवों में उनकी संस्था सक्रिय है और इनको आत्मनिर्भर बनाने में जुटी है। लगभग दो लाख आदिवासी परिवार उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी तकदीर संवार रहे हैं। नीलेश समाज को गांधी का वह संदेश जीकर दिखा रहे हैं कि प्रकृति के पास हमारी हर जरूरत लायक संसाधन है, पर लालच जितना नहीं।
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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