हर शरणार्थी बच्चे के हाथों में किताब थमाने का इरादा
क्या कभी आपने यह सोचा है कि जिन देशों या इलाकों पर अचानक कोई आक्रांता टुकड़ी धावा बोलती है या जहां बागी गुट कहर बरपाने लगते हैं, वहां सबसे ज्यादा नुकसान किसे उठाना पड़ता है? ऐसी हर स्थिति के सबसे...
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क्या कभी आपने यह सोचा है कि जिन देशों या इलाकों पर अचानक कोई आक्रांता टुकड़ी धावा बोलती है या जहां बागी गुट कहर बरपाने लगते हैं, वहां सबसे ज्यादा नुकसान किसे उठाना पड़ता है? ऐसी हर स्थिति के सबसे निर्मम शिकार मासूम बच्चे बनते हैं। जिंदगी को जानने से कब्ल मौत उन पर झपट्टा मारती है और अगर जिंदा बच गए, तो आगे दशकों का उनका सफर लावारिस या शरणार्थी के रूप में ही तय होता है। अब्दुल्लाही मिरे ऐसे हजारों मासूमों के लिए किसी रहबर से कम नहीं, और इसीलिए संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें 2023 के ‘नानसेन शरणार्थी पुरस्कार’ से नवाजा है।
साल 1991 में मिरे के माता-पिता जब सोमालिया में भड़के भीषण गृहयुद्ध से जान बचाकर भागे, तब वह बमुश्किल तीन साल के थे। उनके माता-पिता को लगा था कि कुछ महीनों में शांति स्थापित हो जाएगी, तो वे अपने घर लौट आएंगे। मगर विरोधी कबाइली गुट ने उनके कस्बे ‘कोरीओली’ पर कब्जा उसे खाली कर देने के लिए नहीं किया था, वह इलाका खेती-किसानी के लिहाज से काफी समृद्ध जो था। जाहिर है, घरेलू जंग बढ़ती चली गई और सोमालिया विफल राष्ट्र का दामन फिर कभी न छोड़ पाया। बहरहाल, मिरे के माता-पिता को केन्या के दादाब शरणार्थी शिविर में पनाह मिल गई थी, पर कहां कोरीओली की आजाद जिंदगी और कहां तरह-तरह की बंदिशों में घिरा शरणार्थी जीवन! सुकून सिर्फ इतना था कि हतभागियों की उस बस्ती में ज्यादातर सोमालियाई थे, जिनके साथ जुबान और दर्द की साझेदारी थी। तीन साल के अबोध मिरे के लिए यह अनोखी जगह थी, जहां वह अपने माता-पिता के साथ ‘प्लास्टिक शीट’ की छत वाली झोंपड़ी में रह रहे थे। उन प्लास्टिक की पन्नियों पर कुछ शब्द छपे थे, जो फर्श पर लेटे मिरे के ऊपर सूरज की रोशनी में जादुई असर डालते। बालक मन में जिज्ञासा पैदा होने लगी थी कि आखिर ये कैसी आकृतियां हैं?
पिता ने उन अक्षरों के मतलब बता दिए थे, मगर वह यह भी जानते थे कि इल्म तक पहुंचने के लिए उनके बेटे को मुकम्मल तालीम की जरूरत होगी। बतौर शरणार्थी उन्हें जो थोड़ी-बहुत सहूलियतें हासिल थीं, उनमें से एक शिविर में संचालित स्कूल में बेटे को पढ़ा सकने की सुविधा भी थी। मिरे का दाखिला हो गया और चंद सालों में उन्हें यह एहसास भी हो गया कि शरणार्थी शिविर की चुनौतियों से बाहर निकलने की एक ही राह है- शिक्षा! जाहिर है, जरूरत और दिलचस्पी, दोनों ने मिरे को गढ़ना शुरू कर दिया।
हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद बस्ती के ज्यादातर बच्चे किसी न किसी काम की तलाश में जुट जाते थे, ताकि वे अपने परिवार का बोझ बांट सकें, मगर मिरे की इच्छा ऊंची तालीम हासिल करने की थी। लिहाजा, उन्होंने स्कॉलरशिप के लिए प्रतियोगी परीक्षा दी और वह उसमें कामयाब भी हो गए। मिरे पत्रकारिता की पढ़ाई करना चाहते थे, क्योंकि दादाब शिविर की रिपोर्टिंग करते पत्रकारों से वह बहुत प्रभावित थे। केन्याता विश्वविद्यालय से 2014 में ‘पीआर, कम्यूनिकेशन ऐंड मीडिया स्टडीज’ में स्नातक करने के बाद मिरे के पास काम की कभी कमी नहीं रही। अंशकालिक पत्रकार के तौर पर उन्होंने अल-जजीरा, एएफपी, बीबीसी आदि कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों के लिए काम किया। इसी कारण वह नॉर्वे चले आए थे और वहीं बसने का विचार करने लगे थे।
साल 2017 की बात है। एक रिपोर्ट तैयार करने के सिलसिले में मिरे हागडेरा माध्यमिक स्कूल पहुंचे थे। वहां होदान बशीर नाम की लड़की ने एक दिन कुछ झिझकते हुए उनसे कहा- ‘भाई, क्या मेरे लिए जीव विज्ञान की किताब खरीद देंगे?’ होदान डॉक्टर बनना चाहती थीं। उनकी लरजती आवाज के पीछे की उत्कंठा, शर्म और बेबसी को मिरे से बेहतर भला कौन पढ़ सकता था? अब्दुल्लाही मिरे को लगा अपने नाम और जीवन को सार्थक करने का इससे बेहतर जरिया दूसरा नहीं हो सकता। अब्दुल्लाही का मतलब ही होता है- खुदा का खिदमतगार! उन्होंने होदान के लिए न सिर्फ किताब खरीदी, बल्कि उन जैसे सभी शरणार्थी बच्चों की मदद का प्रण भी उसी पल कर लिया। नॉर्वे में बसने का ख्याल त्यागकर वह अपनों के बीच नैरोबी लौट आए।
लगभग तीन लाख की आबादी वाले दादाब शरणार्थी शिविर के बच्चों के बीच किताबों की किल्लत थी। होदान जैसी 15 लड़कियों को जीव विज्ञान की एक किताब से काम चलाना पड़ रहा था। लड़के तो फिर भी रातों में ‘ग्रुप स्टडी’ कर सकते थे, मगर सुरक्षा के लिहाज से लड़कियों के लिए यह मुमकिन न था। इसलिए मिरे ने सोशल मीडिया पर ‘किताब के लिए दान’ मुहिम शुरू की और अपने दूसरे संपर्कों के जरिये करीब 20 हजार किताबें एकत्र कीं। बच्चों में उनको बांटकर मिरे को काफी सुकून मिला। उसने उन्हें 2018 में ‘शरणार्थी युवा शिक्षा केंद्र’ शुरू करने को प्रेरित किया।
इसी संगठन के जरिये उन्होंने दादाब के तीन सार्वजनिक पुस्तकालयों के लिए लगभग 60,000 किताबें जुटाईं। आज संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, कतर और अफ्रीका की मदद से मिरे के इस संगठन के सात पूर्णकालिक शिक्षक-कर्मचारी और सौ से अधिक स्वयंसेवक शरणार्थी बच्चों को पढ़ा रहे हैं और वहां की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने में मदद कर रहे हैं। मिरे की इस पहल ने कई शरणार्थी बच्चों को प्रिंस्टन जैसी प्रतिष्ठित अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पहुंचा दिया है। यहां के कई बच्चे आज अच्छे शिक्षक, लेखक व पत्रकार हैं। तालीम ने उनके लिए कई दरीचे खोल दिए हैं।
नानसेन शरणार्थी पुरस्कार के रूप में अब्दुल्लाही मिरे को 83 लाख रुपये से अधिक की धनराशि मिली है। वह इस रकम से दादाब के हर उस मासूम को किताब थमाना चाहते हैं, जिसे किसी अब्दुल्लाही मिरे की तलाश है।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह
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