बेटियों के सम्मान की जंग लड़ता बीबीपुर का बेटा
हरियाणा इन दिनों सियासी शोर में डूबा है। राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों और लांछनों से परे हटकर देखें, तो यह प्रदेश कई विडंबनाओं को एक साथ जीता है। यह देश में हरित क्रांति का अग्रणी राज्य है...
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हरियाणा इन दिनों सियासी शोर में डूबा है। राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों और लांछनों से परे हटकर देखें, तो यह प्रदेश कई विडंबनाओं को एक साथ जीता है। यह देश में हरित क्रांति का अग्रणी राज्य है, तो सर्वाधिक बेरोजगारी वाले प्रांतों की पहली कतार में भी खड़ा दिखता है। ‘हमारी छोरियां क्या छोरों से कम हैं’ जैसे क्रांतिकारी विचार की यह धरती ‘ऑनर किलिंग’ और कन्या भ्रूण हत्या के लिए भी कुछ कम कुख्यात नहीं रही। एक दौर में तो आलम यह था कि वहां के कई योग्य नौजवानों को अपनी शादी के लिए ‘मोलकी’ प्रथा का सहारा लेना पड़ा, यानी उन्हें सुदूर केरल, ओडिशा, झारखंड, बिहार आदि राज्यों में जाकर जीवनसाथी की तलाश करनी पड़ती या फिर उनके परिवार इसकी कीमत चुकाते। ऐसी पृष्ठभूमि में सुनील जागलान ने जो कुछ किया है, उसके लिए वह हरियाणा, देश व इंसानियत के सबसे बडे़ खिदमतगुजारों में गिने-सराहे जाते रहेंगे।
जिंद जिले में बीबीपुर गांव के 43 वर्षीय सुनील एक साधारण परिवार में पैदा हुए। बचपन में इतने शर्मीले और संकोची थे कि कक्षा में आखिरी लाइन में बैठा करते, मगर पिता ने हमेशा एक खुदमुख्तार इंसान बनने को पे्ररित किया। शायद यही वजह थी कि गणित की अच्छी समझ होने के कारण किशोरावस्था से ही वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे थे, ताकि कुछ पैसे कमा सकें। पढ़ने-लिखने में जहीन सुनील ने करियर के रूप में अध्यापन को ही चुना और एक गणित शिक्षक के रूप में छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय भी रहे। मगर कुछ था, जो उन्हें अंदर से बेचैन किए रहता। गांव-समाज के हालात से वह बहुत खुश नहीं थे। आखिरकार साल 2010 में उन्होंने सरपंच का चुनाव लड़ने का फैसला किया।
जाति और धर्म के समीकरणों के जरिये चुनावी जीत साधने वाले समाज में 29 साल के एक नौजवान की इस हिमाकत पर गांव के बडे़-बुजुर्गों को हैरानी हुई, बल्कि उनके इस निर्णय का काफी मुखर विरोध भी हुआ। इस विरोध को सुनील ने चुनौती के रूप में लिया और आजाद उम्मीदवार के तौर पर वह चुनावी मैदान में उतर गए। उनकी शिक्षा, शराफत व बेहतरी की दलीलों ने आखिरकार गांव के लोगों को उनकी तरफ मुड़ने को मजबूर किया और वह बीबीपुर के सरपंच चुन लिए गए।
सुनील जिस समाज में पले-बढ़े थे, उसमें लैंगिक भेदभाव बहुत सामान्य बात थी और इसे लेकर अपनी मां और बहन को उन्होंने बचपन से कुढ़ते, दुखी होते देखा था। अब उनके पास सामाजिक रूढ़ियों से लड़ने के कुछ अख्तियार थे। साल 2012 की बात है। तारीख 24 जनवरी थी। इसी दिन राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। सुनील पिता बनने वाले थे। वह उनकी जिंदगी के सबसे सुखद दिनों में से एक था। एक नन्ही गुड़िया उनकी जिंदगी में आई थी। मगर नर्स ने बड़ी मायूसी से आकर कहा- बेटी हुई है। सुनील का रचयिता भाव अपने चरम पर था। उनका हाथ अनायास जेब की तरफ गया और वहां से वह जितने नोट बटोर सकता था, लेकर नर्स की ओर बढ़ चला। मगर नर्स ने यह कहते हुए बख्शीश लेने से मना कर दिया कि डॉक्टर नाराज होंगी। आपको बेटा हुआ होता, तो और बात थी!
इस नकारात्मक टिप्पणी से सुनील को झटका-सा लगा, पर वह अपनी खुशी को किसी एक की तंगख्याली की भेंट नहीं चढ़ने देना चाहते थे। वह पूरे गांव के लिए मिठाई लेकर आए। पर बीबीपुर वालों की प्रतिक्रिया अजीबोगरीब थी। वे इस दुआ के साथ मिठाई कुबूल कर रहे थे कि अगली बार जरूर भगवान उन्हें ‘बेटा’ देंगे। लोगों के इस रवैये से निराश होने के बजाय सुनील ने बिटिया के जन्म को खूब धूमधाम से मनाया। इसके कुछ ही दिनों बाद स्वास्थ्य केंद्र जाकर उन्होंने लैंगिक अनुपात की जानकारी ली, तो तस्वीर बहुत दुखद मिली। 2011 की जनगणना के मुताबिक, सबसे खराब लैंगिक अनुपात हरियाणा का ही था। वहां प्रति 1,000 लड़कों पर लड़कियों की पैदाइश की संख्या महज 832 थी। जिंद की स्थिति तो और खराब थी।
सुनील के लिए वजह समझना मुश्किल न था। उन्होंने देश में पहली बार अलग से महिला ग्रामसभा की बैठक बुलाई और उसमें कन्या भ्रूण हत्या के मुद्दे को उठाया। मगर वहां की बातचीत से उन्हें अच्छी तरह स्पष्ट हो गया कि व्यवहार में महिलाओं के पास फैसले लेने का अधिकार नहीं है। फिर उन्होंने ‘निगरानी रखना’ मुहिम की शुरुआत की। इसमें गर्भवती महिलाओं पर नजर रखी जाती थी कि वे कन्या भू्रण को लेकर किसी दबाव का शिकार न बनें। सुनील की इस मुहिम ने इतना ध्यान आकर्षित किया कि सरकार ने उनकी पंचायत को एक करोड़ रुपये की राशि आवंटित की। साल 2013 और 2014 में लैंगिक अनुपात में शानदार सुधार के लिए उनके गांव को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया।
अपनी सरपंची में उन्होंने बेटियों के लिए ‘लाडो पुस्तकालय’ और ‘सेल्फी विद डॉटर’ जैसे अभियान चलाए। सेल्फी विद डॉटर मुहिम की सराहना तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने मन की बात कार्यक्रम में की। इसके बाद सुनील की मकबूलियत बढ़ती चली गई। बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी-अपनी बेटियों के साथ सोशल मीडिया पर तस्वीरें डालनी शुरू कर दीं। एक गांव से शुरू हुआ यह अभियान राष्ट्रीय बन गया। यह ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ कार्यक्रम का प्रेरणास्रोत भी बना। सुनील ने कई विश्वविद्यालयों में सलाहकार की भूमिका निभाई है। हाल ही में यूनिसेफ ने उन्हें अपना सलाहकार नियुक्त किया है।
सुनील जागलान ने अपनी प्रतिबद्धता से न सिर्फ बीबीपुर की महिलाओं की जिंदगी को रोशन किया, बल्कि अपने गांव को अंतरराष्ट्रीय फलक पर सुर्खरू कर दिया। उन पर बनी ‘डॉक्यूमेंट्री’ सनराइज को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। लगभग 75 देशों में यह दिखाई जा चुकी है। फिर बीबीपुर अपने इस बेटे पर भला क्यों न कुर्बान जाए!
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह
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