काश! हरेक गांव को एक मास्टरमोशाय मिल जाएं
उम्र के उस पड़ाव पर ज्यादातर लोग अपने लिए आराम का कोई कोना चुनना पसंद करते हैं या निष्क्रियता को नियति के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, वहीं कई सारे लोगों के लिए उस मोड़ से आगे एक नया सफर शुरू होता...
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उम्र के उस पड़ाव पर ज्यादातर लोग अपने लिए आराम का कोई कोना चुनना पसंद करते हैं या निष्क्रियता को नियति के रूप में स्वीकार कर लेते हैं, वहीं कई सारे लोगों के लिए उस मोड़ से आगे एक नया सफर शुरू होता है, जिसमें जिंदगी की रोजमर्रा की जरूरतों से ज्यादा उनके मनुष्य होने का मकसद अधिक प्रभावी होता है और इस दुनिया से रुखसत होने से पहले वे अपने समाज व देश के लिए कुछ ऐसा कर जाते हैं कि आने वाली नस्लें उनको श्रद्धा से याद करें। पश्चिम बंगाल के पूर्व बर्द्धमान जिले के द्विजेंद्र नाथ घोष को उनका गांव कभी नहीं भूल पाएगा।
आज से 76 साल पहले इस जिले के बसंतपुर गांव के एक ऐसे घर में घोष पैदा हुए, जिसके लिए दो वक्त का भोजन जुटाना भी काफी मुश्किल होता था। उस जमाने में ऐसे घरों में बेटों की पैदाइश को परिवार के लिए दो कामगार हाथ बढ़ने से ज्यादा नहीं समझा जाता था। ऐसे में, घोष के लिए स्कूल जाना और अपने लिए पठन-पाठन की सामग्रियां जुटाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है। अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्हें किशोरावस्था से ही काम करना पड़ा, पर घोष के अंदर यह समझ बन चुकी थी कि मेरे बड़ों ने जिस तरह की जिंदगी गुजारी, उन्हें वैसा जीवन नहीं जीना और इससे मुक्ति सिर्फ शिक्षा ही दिला सकती है।
घोष का संघर्ष रंग लाया। उन्होंने न सिर्फ अंग्रेजी भाषा और साहित्य, बल्कि राजनीति विज्ञान में भी एमए किया और बीएड की पेशेवर दक्षता भी हासिल की। मगर समान आर्थिक पृष्ठभूमि के समवय ग्रामीण नौजवानों का हाल देखकर वह काफी दुखी हो जाते। उनके गांव की एक बड़ी आबादी दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों की है। तब इन वर्गों की माली हालत बिल्कुल अच्छी न थी। उच्च शिक्षा ने घोष की सोच को एक नया वितान दिया था। वह अपने गांव की स्थिति को बदलना चाहते थे। मगर कैसे? उनके पास न दौलत थी, न कोई ऐसी ऊंची नौकरी, जिसकी मदद से वह उस पिछडे़ गांव तक तरक्की की कोई सड़क खींच लाते। बस शिक्षा के मामले में वह धनवान थे और बसंतपुर इसमें भी निर्धन था। वहां से छह किलोमीटर दूर एक सरकारी स्कूल था, जहां तक गरीब बच्चों का पहुंचना कठिन था और यदि कोई चला भी जाता, तो टिक नहीं पाता था।
घोष ने अपने पांच दोस्तों से बात की और वंचित तबके के बच्चों के लिए गांव में एक प्राइमरी स्कूल की शुरुआत की। यह नि:शुल्क शिक्षा केंद्र था। इससे उन्हें व उनके साथियों को कोई आमदनी नहीं होने वाली थी। दूसरी तरफ, घोष के कंधों पर अपने परिवार की अपेक्षाओं का भी बोझ था। परिजनों की यह बात नाजायज न थी कि इतनी ऊंची डिग्रियां हासिल करने के बाद भी यदि घोष अपने परिवार की आर्थिक मदद न कर पाएं, तो उनके पढ़ने-लिखने का क्या फायदा? परिवार का दबाव बढ़ा, तो उन्हें इस स्कूल का काम छोड़ नौकरी की तलाश करनी पड़ी। सन् 1975 में घोष को सलीमाबाद हाई स्कूल में बतौर शिक्षक नौकरी मिल गई।
परिवार की जिम्मेदारियां बढ़ती गईं और घोष अपनी नई नौकरी के दायित्वों में व्यस्त होते गए। उनके न होने के बावजूद साथियों की बदौलत गांव का स्कूल कई वर्षों तक चलता रहा। फिर बंद हो गया। घोष को यह बात अक्सर कचोटती कि उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों से आगे स्कूल को रखना चाहिए था। मगर उन्होंने गरीब बच्चों की मदद के जज्बे को कभी मरने नहीं दिया। साल 2008 में जमालपुर हाई स्कूल से रिटायर होने के बाद वह गांव लौटे, तो उनके पास ज्ञान, अनुभव और वक्त, तीनों की प्रचुरता थी। उन्होंने नई शुरुआत की।
वह गांव में सरकारी स्कूल खुलवाने के अभियान में जुट गए। घोष ने पश्चिम बंगाल सरकार से इसके लिए आवेदन किया और स्कूल हासिल करने के लिए वह सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने लगे। करीब दो साल बाद 2010 में राज्य सरकार ने घोष के आवेदन को मंजूरी देते हुए बसंतपुर में कक्षा आठ तक का एक जूनियर हाईस्कूल खोलने का फैसला किया। हालांकि, स्कूली इमारत और दूसरी बुनियादी जरूरतों के लिए गांव को चार वर्ष और इंतजार करना पड़ा। इसमें भी कुछ स्थानीय नेताओं द्वारा व्यवधान डालने की कोशिश हुई, मगर जिन गरीब तबकों की तकदीर संवारने के लिए घोष बाबू संघर्ष कर रहे थे, उन्होंने मिल-जुलकर निर्माण-कार्य पूरा करा दिया। स्कूल बन गया और अकेले द्विजेंद्र नाथ घोष के प्रयास के कारण बसंतपुर व पड़ोस के गांवों के अनेक बच्चे आज कॉलेज में हैं। अभी इस स्कूल में 140 बच्चे पढ़ रहे हैं, जिनमें से पचास से ज्यादा लड़कियां हैं।
पिछले साल इस स्कूल का अस्तित्व उस वक्त संकट में आ गया, जब राज्य सरकार द्वारा नियुक्त चारों अतिथि शिक्षक फरवरी में रिटायर हो गए। तब 75 वर्ष की उम्र में घोष बाबू एक बार फिर आगे आए। उन्होंने न सिर्फ खुद बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाना शुरू किया, बल्कि बच्चों को विज्ञान, गणित, इतिहास, बांग्ला आदि विषय पढ़ाने के लिए अपने पूर्व शिष्यों की मदद ली। घोष बाबू की इस एक पहल के कारण आज कई लड़कियों को कन्याश्री योजना का लाभ मिल रहा है, यानी 18 साल तक उनकी पढ़ाई-लिखाई का पूरा खर्च राज्य सरकार उठा रही है। अगर यह स्कूल न होता, तो वे सब की सब अब तक बाल विवाह का शिकार हो गई होतीं।
उम्र के 76वें साल में वह राज्य सरकार से अपने स्कूल में स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें यकीन है कि उनकी मांग मानी जाएगी। मानी जानी भी चाहिए। सैकड़ों बच्चों की जिंदगी में ज्ञान की रोशनी बिखेरने वाले बुजुर्ग घोष बाबू को स्थानीय लोग सम्मान से ‘मास्टरमोशाय’ पुकारते हैं। मास्टरमोशाय को इत्मीनान है कि उनका गांव अब काफी बदल गया है। उसके बच्चे सपने देखने लगे हैं।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह
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