काश! अपने बुजुर्गों को हम काम लायक समझा पाते
भारत में चिकित्सकीय सुविधाओं के विस्तार के कारण औसत आयु में लगातार वृद्धि हो रही है। इस समय देश में बुजुर्गों की आबादी दस करोड़ से ज्यादा है। इनमें से 40 प्रतिशत बुजुर्ग गरीबी में जीते हैं। 18.5 प्रतिशत से अधिक के पास कोई नियमित आय नहीं है…
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क्षमा शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार
भारत में चिकित्सकीय सुविधाओं के विस्तार के कारण औसत आयु में लगातार वृद्धि हो रही है। इस समय देश में बुजुर्गों की आबादी दस करोड़ से ज्यादा है। इनमें से 40 प्रतिशत बुजुर्ग गरीबी में जीते हैं। 18.5 प्रतिशत से अधिक के पास कोई नियमित आय नहीं है। ऐसे बुजुर्गों की स्थिति कैसी होती होगी, यह आसानी से समझा जा सकता है। पश्चिमी देशों में इसीलिए रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाई जा रही है, जिससे बुजुर्ग भी देश की तरक्की और उसकी आर्थिकी को बढ़ाने का काम कर सकें। अमेरिका में यह 67 साल है, तो कई देशों में 65 वर्ष। जर्मनी में भी 67 वर्ष है। अपने यहां शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वालों की भी सेवानिवृत्ति की उम्र निर्धारित है, जबकि अमेरिका में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोग शायद ही कभी रिटायर होते हैं। अमर्त्य सेन इसका बड़ा उदाहरण हैं।
भारत में रिटायरमेंट की वही पारंपरिक उम्र चली आ रही है- 60 या 58 वर्ष। तर्क यह दिया जाता है कि अगर पुराने लोग रिटायर नहीं होंगे, तो नए लोगों को काम कैसे मिलेगा? सोचिए, अपने देश में दस करोड़ से अधिक की आबादी को हाथ पर हाथ रखकर रहकर बस मृत्यु का इंतजार करना है। इनमें से बहुत कम बुजुर्गों के पास पेंशन की सुविधा है, जिससे वे अपना भरण-पोषण कर सकें। अधिकांश वृद्ध अपने बच्चों और परिवार पर निर्भर हैं और इस निर्भरता में वे तरह-तरह की मुसीबतें झेलते हैं। उन्हें अकेला छोड़ दिया जाता, वक्त पर इलाज नहीं मिलता। बहुत बार वे भीख तक मांगने को मजबूर होते हैं। अभी बनारस की एक खबर सुर्खियां बनी थी, जिसमें एक लेखक को उसके बच्चों ने घर से निकाल दिया। उनके पास अस्सी करोड़ रुपये की संपत्ति भी थी, लेकिन अंतिम दिन एक कुष्ठ आश्रम में काटने पड़े। सूचना के बावजूद अंतिम संस्कार के वक्त भी बच्चे नहीं आए। देश के एक बड़े उद्योगपति के साथ भी ऐसा हो चुका है।
मैं जहां रहती हूं, उसके आस-पास कई पार्क हैं। वहां देखती हूं कि बहुत से लोग यूं ही खाली बैठे रहते हैं। कई तो ऐसे हैं, जो गर्मी की भरी दोपहर में भी वहां नजर आते हैं। उन्हें देखकर लगता है, क्या घर के अंदर उनके लिए कोई जगह नहीं? यह भी कि अगर इनके पास कोई काम होता, तो ये इस तरह न बैठे रहते? डॉक्टर कहते हैं कि काम करते आदमी के मुकाबले खाली बैठा आदमी बहुत जल्दी रोगों का शिकार हो जाता है। डिप्रेशन यानी अवसादग्रस्तता की बीमारी उनमें से एक है। इसीलिए अध्ययन बता रहे हैं कि बुजुर्गों में ‘रिटायरमेंट डिप्रेशन’ बढ़ता जा रहा है। जीवन भर, सुबह-शाम नौकरी की आपाधापी में लगे रहे, अब एकदम खाली हो गए, ऐसे में यही सोच हावी हो जाती है कि अब दिन कैसे कटेगा? और यदि आय का कोई नियमित साधन या स्रोत न हो, तो जीवन कैसे चलेगा?
इन दिनों बहुत से परिवारों के बच्चे या तो विदेश चले गए हैं या वे किसी दूसरे शहर में हैं। पैतृक शहर में भी हों, तो प्राय: माता-पिता के साथ नहीं रहना चाहते। ऐसे में, यह भावना आना स्वाभाविक है कि जिनके लिए जीवन खपा दिया, अंत में क्या हाथ आया? बड़े शहरों में तो फिर भी अगर घर में जगह न मिले, तो लोग मजबूर होकर वृद्धाश्रम का रुख कर लेते हैं, मगर छोटे शहरों में तो यह सुविधा भी नहीं है। बहुत से बुजुर्गों को घर में होते हुए भी बहुत अकेलेपन का सामना करना पड़ता है। चूंकि वे जिंदगी भर घर से बाहर रहे, इसलिए अब हर वक्त घर में रहना पत्नी और बच्चों को ही पसंद नहीं आता।
इन बुजुर्गों के लिए क्यों नहीं ऐसी व्यवस्थाएं की जातीं, जिनसे वे समाज और बच्चों पर खुद को बोझ न समझें और रिटायरमेंट को जीवन का अंत न मान बैठें। देखा जाए, तो यह उन बुजुर्गों की समस्या ज्यादा है, जो मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग से आते हैं और नौकरी-पेशा रहे हैं, वरना न तो किसान कभी रिटायर होते हैं, न व्यापारी, न ही छोटे-मोटे काम करने वाले लोग ही। इनके अलावा साधारण महिलाएं, चाहे वे नौकरी भी करती रही हों, कभी रिटायर नहीं होतीं। पूरी उम्र घर के काम उनके सामने मुंह बाए खड़े रहते हैं। इसलिए सरकारों और निजी क्षेत्र को अब ऐसी योजनाएं बनानी चाहिए, जिनसे बुजुर्गों को भी काम मिल सके। इससे उनका समय भी कटेगा, वे किसी पर बोझ भी न होंगे और एक बड़ी आबादी बुजुर्ग होते हुए भी कामकाजी कहलाएगी।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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