महामारी के मारे महानुभाव
बुरी खबरों से बजबजाते इस बदहाल वक्त में एक अच्छी खबर से इस स्तंभ की शुरुआत करता हूं। बरेली की तमन्ना अली गर्भवती थीं। उनका प्रसव काल आ चुका था, परंतु उनके पति नोएडा में फंसे हुए थे। संपूर्ण लॉकडाउन...
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बुरी खबरों से बजबजाते इस बदहाल वक्त में एक अच्छी खबर से इस स्तंभ की शुरुआत करता हूं। बरेली की तमन्ना अली गर्भवती थीं। उनका प्रसव काल आ चुका था, परंतु उनके पति नोएडा में फंसे हुए थे। संपूर्ण लॉकडाउन की वजह से कोई जरिया न था कि वह इस नाजुक मौके पर अपनी पत्नी के पास पहुंच सकें। तमन्ना को कोई अस्पताल ले जाने वाला भी न था। ऐसे कठिन वक्त में वह भावनात्मक द्वंद्व से जूझ रही थीं।
'हिन्दुस्तान' के संवाददाता अवनीश पाण्डेय को जैसे ही इसकी खबर लगी, उन्होंने बरेली के एसएसपी को इससे अवगत कराया, क्योंकि हमारे लिए उस समय चटखारेदार खबर के मुकाबले इंसानियत का महत्व अधिक था। बरेली एसएसपी ने नोएडा के पुलिस कमिश्नर से बात की और उन्होंने इनकी सहायता करने के लिए नोएडा के अपर पुलिस उपायुक्त रणविजय सिंह से कहा। रणविजय सिंह के माध्यम से तमन्ना के पति के लिए एक गाड़ी का इंतजाम हो गया। रास्ते में कोई न उन्हें रोके-टोके, इसकी जिम्मेदारी भी नोएडा पुलिस ने उठाई। अनीस खान के पहुंचने के कुछ देर बाद ही तमन्ना ने पुत्र रत्न को जन्म दिया। इस दंपति ने अपने बेटे का नाम रखा है, रणविजय खान। रणविजय सिंह उत्तर प्रदेश पुलिस के अधिकारी हैं और नोएडा में अपर पुलिस उपायुक्त के पद पर तैनात हैं। उम्मीद है, रणविजय खान बड़ा होकर सांप्रदायिक सौहार्द और भारतीय कर्तव्य परायणता की परंपरा को आगे बढ़ाएगा।
सुकून की बात है कि हिन्दुस्तान में इस वक्त तमाम लोग और संगठन सरकार के साथ मिलकर कोरोना को पछाड़ने में जुटे हैं। जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, वैसे-वैसे सहयोग की यह डोर मजबूत होती जा रही है, मगर इस दिशा में अभी बहुत काम किया जाना है, जिस पर आगे चर्चा करूंगा। अब आते हैं दुनिया के हालात पर।ब्रिटेन से खबर आई है कि युवराज चाल्र्स के बाद वहां के प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री भी कोरोना के मरीज बन गए हैं। ये वे लोग हैं, जिन्होंने इस महामारी के प्रकोप का शुरुआती दौर में मजाक उड़ाया था। उनके इस लापरवाह रवैये ने न केवल उनकी, बल्कि उनके देशवासियों की जिंदगी भी संकट में डाल दी है। ब्रिटेन में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 759 लोग मारे जा चुके हैं और 14,543 संक्रमित पाए गए हैं। कभी दुनिया पर राज करने वाला यह देश कोरोना के भय से कंपकंपा रहा है।
कंपकंपाहट तो अमेरिका में भी है। यहां के जोशीले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी शुरुआती दौर में इस आपदा को गंभीरता से नहीं लिया था। बोरिस जॉन्सन की तरह वह भी इसका मजाक उड़ाने में लगे थे। यही वजह है कि अमेरिका अभूतपूर्व संकट में फंस चुका है। अब तक वहां कोरोना 1,704 लोगों को असमय लील चुका है और एक लाख से अधिक लोग संक्रमित पाए गए हैं। यह आश्चर्यजनक है कि खुद को धरती का स्वर्ग घोषित करने वाले अमेरिका में इस आपदा से लड़ने की कोई खास तैयारी नहीं थी। खुद को संसार का सबसे अच्छा शहर कहने वाले न्यूयॉर्क में हालात सर्वाधिक खराब हैं। वहां के गवर्नर और मेयर ट्रंप सरकार से बेहद खफा हैं। जिस तरह की सियासी तू-तू, मैं-मैं वहां देखने में आ रही है, वह अमेरिकी सौहाद्र्र एवं भाईचारे का खोखलापन जाहिर करती है।
वहां के अस्पतालों के बाहर फ्रीजर लगा दिए गए हैं, ताकि अनुमान से अधिक अकाल मृत्यु होने पर शवों को उनमें रखा जा सके। न्यूयॉर्क के एक मशहूर अस्पताल के आपातकालीन विभाग में वरिष्ठ चिकित्सक के पद पर तैनात डॉक्टर को सीएनएन पर रोते हुए दिखाया गया। वह कह रही थीं कि यह बताने की कोशिश की जा रही है कि सब ठीक चल रहा है, परंतु हकीकत यह है कि यहां कुछ भी ठीक नहीं है। हमारे मरीज मर रहे हैं और हम कुछ नहीं कर पा रहे। यह ठीक है कि किसी भी महामारी की गंभीरता का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता, पर रासायनिक हथियारों का जखीरा रखने वाला अमेरिका चिकित्सा सुविधाओं के मामले में इतना अनाड़ी साबित होगा, यह अकल्पनीय था।
यूरोप का हाल तो बहुत खराब है। स्पेन और इटली में मरने वालों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है, वहां अंतिम संस्कार के लिए ताबूतों तक की कमी पड़ गई है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ये देश चीन से बहुत खफा हैं। आने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप अपनी अक्षमता को चीन के मत्थे मढ़ने की कोशिश करेंगे। विश्व कूटनीति के पटल पर इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। चीन भी इस मामले में अमेरिका को चिढ़ाने से बाज नहीं आ रहा। जब व्हाइट हाउस अपने मरीजों की जान बचाने के लिए जूझ रहा है, तो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग यूरोप के देशों को वेंटिलेटर अनुदान स्वरूप दे रहे हैं। जाहिर है कि वह इसके बदले में उनका समर्थन चाहेंगे।
अब भारत पर आते हैं। कुछ लोगों का आरोप है कि संपूर्ण लॉकडाउन कोई सार्थक हल मुहैया नहीं कराता। इस विरल वक्त में, जब इसका पता नहीं चल सकता कि किस व्यक्ति के शरीर में यह संक्रामक विषाणु छिपा है, लॉकडाउन के अलावा विकल्प भी क्या था? मुंबई की लोकल, दिल्ली और कोलकाता की मेट्रो की भीड़ के फोटो तो अक्सर देखे जाते हैं, पर हमारे गांवों में परिवहन के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले टेंपो और अन्य वाहन जिस तरह खचाखच सवारियां ढोते हैं, उन्हें रोकना जरूरी था। शुक्रवार की शाम को अकबकाए हुए बोरिस जॉन्सन सोशल डिस्टेंसिंग की वकालत कर रहे थे, लॉकडाउन के अलावा भारत में सोशल डिस्टेंसिंग लागू कराने का कोई और उपाय है क्या?
अगर इससे हम सामाजिक संक्रमण के तीसरे और निर्णायक दौर को टालने या कम करने में सफल हो गए, तो इसे विश्व-इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा। अगर ऐसा न हो सका, तब भी आपदा तो हमारे घर में दाखिल हो ही चुकी थी, उसका नुकसान कम करने का इसके अलावा कोई अन्य तरीका नहीं था। समय आ गया है, जब भारतीय समाज खुद के प्रति अपनी जिम्मेदारी महसूस करे और समाज-हित में सामाजिक दूरी बनाए। यही नहीं, हमें कुछ दिनों के लिए अपनी सामथ्र्य के अनुसार दरिद्र नारायण की सेवा भी करनी होगी। यह हमारी परंपरा भी है, और मजबूरी भी। कोई भी सरकार सिर्फ राजकोष से इतनी बड़ी आबादी की क्षुधा शांत नहीं कर सकती।
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