Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगhindustan aajkal column by shashi shekhar 22 September 2024 Kashmiri hope needs faith

कश्मीरी आस को विश्वास चाहिए

इतनी बड़ी तादाद में मतदान से क्या अर्थ निकाला जाए? क्या आतंकवाद से लहूलुहान इस धरती से दहशत की विदाई हो रही है?... पिछले 75 बरस के घटनाक्रम गवाह हैं कि जम्मू-कश्मीर में शांति की हर पहल अगली अशांति...

Admin शशि शेखर, Sat, 21 Sep 2024 08:22 PM
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कश्मीरी आस को विश्वास चाहिए

जम्मू-कश्मीर में जम्हूरियत ने अपनी पहली परीक्षा पास कर ली है। गुजरे बुधवार को पहले चरण के चुनाव में सर्वाधिक संवेदनशील मानी जाने वाली 24 विधानसभा सीटों के लिए मनपसंद उम्मीदवार चुनने को लोग उमड़ पडे़। यहां 61.11 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने लोकतांत्रिक हक-हुकूक का इस्तेमाल किया। पिछले 35 वर्षों में इतने वोट कभी नहीं पडे़ थे। उम्मीद है, अगले दो चरणों में यह सिलसिला जारी रहेगा।
इतनी बड़ी तादाद में मतदान से क्या अर्थ निकाला जाए? क्या आतंकवाद से लहूलुहान इस धरती से दहशत की विदाई हो रही है? क्या जम्मू-कश्मीर के लोग शेष देश के साथ कदमताल को तैयार हो गए हैं? क्या ‘गन कल्चर’ की रुखसती का रुक्का इन चुनावों के जरिये लिखा जा रहा है? इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने में जल्दबाजी आत्मघाती साबित हो सकती है। पिछले 75 बरस के घटनाक्रम गवाह हैं कि वहां शांति की हर पहल अगली अशांति के बीज बोती है।
शक, शुबहे और संशय के साथ इस वातावरण के लिए वहां का अवाम नहीं, बल्कि सियासी जमात जिम्मेदार है, जिसने कभी भी जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया। 
प्रमुखतम राजनीतिक पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला से चर्चा शुरू  करता हूं। उमर साहब कल तक फरमा रहे थे कि मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा। उनका मानना था कि उनके चुनाव लड़ने से प्रदेश विभाजन के केंद्रीय फैसले को मान्यता मिल जाएगी, लेकिन वह अब एक नहीं, दो सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं। कोई उनसे पूछता है कि क्या आप चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी भी संभालेंगे, तो उनका जवाब होता है कि मैं भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता। सियासत समझने वाले समझते हैं कि उमर अब्दुल्ला को यह चुनाव मजबूरी में लड़ना पड़ रहा है। अगर वह नहीं लड़ते, तो भला किस मुंह से जनता से वोट मांगने जाते? वह कैसे कहते कि हमारे प्रत्याशियों को जिताओ? अगर उनका गठबंधन जीतता है, तो ना-नुकूर के बाद इस ‘अधूरे’ राज्य का मुख्यमंत्री पद भी स्वीकार कर सकते हैं। राजनीति में राम और भरत नहीं होते। अब्दुल्ला पिता-पुत्र अपनी पार्टी में कोई जीतनराम मांझी अथवा चंपाई सोरेन नहीं पनपने देना चाहेंगे। 
बात यहीं खत्म नहीं होती। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने पहले अनुच्छेद-370 को मुख्य मुद्दा बनाने से इनकार किया था। ऐसा उन्होंने कांग्रेस के साथ चुनावी जुगलबंदी के लिए किया होगा। राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते कांग्रेस शेष देश में यह मुद्दा भारतीय जनता पार्टी को नहीं सौंपना चाहती कि वह कश्मीर के मुद्दे पर तुष्टिकरण की राजनीति कर रही है। उमर यहां भी अपनी बात से पीछे हट चुके हैं। अब उन्हें पूर्ण राज्य के दर्जे की बहाली के साथ अनुच्छेद-370 की वापसी भी चाहिए। हालांकि, पूर्ण राज्य का दर्जा सभी बहाल करना चाहते हैं। भारतीय जनता पार्टी भी इससे इनकार नहीं करती, लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस के तौर-तरीके ने उस पर सवाल खडे़ कर दिए हैं। इससे कांग्रेस के सामने वैचारिक दुविधा खड़ी हो गई है। 
क्या यह विरोधाभास उन क्षेत्रीय दलों का रास्ता हमवार करेगा, जो बातों ही बातों में अलगाव का मुद्दा परोस जाते हैं?
इस सवाल के जवाब के लिए इंजीनियर राशिद के बयानों पर नजर डाल देखिए। राशिद उमर अब्दुल्ला को हराकर संसद में पहुंचे हैं। उन्होंने वह चुनाव तिहाड़ जेल से लड़ा और जीता। जेल से छूटने के दूसरे ही दिन राशिद ने अपने निर्वाचन क्षेत्र में एक जनसभा की। देर शाम आयोजित इस सभा में उमड़ी भीड़ ने लोगों को हैरत में डाल दिया है। सवाल उठ रहे हैं, क्या इंजीनियर राशिद इस चुनाव में बहुत बड़ा उलट-फेर करने जा रहे हैं? जवाब के लिए हमें अक्तूबर की आठ तारीख का इंतजार करना पडे़गा, उस दिन नतीजे घोषित होने हैं। 
हालांकि, राशिद अपने तईं यही कोशिश कर रहे हैं। इसी वजह से वह राष्ट्रीय पार्टियों, नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी सहित सभी के निशाने पर हैं। उमर अब्दुल्ला उन पर सवाल उठाते हैं कि जिस यूएपीए कानून के तहत इंजीनियर राशिद गिरफ्तार थे, उसमें आमतौर पर जमानत नहीं होती। उन्हें कैसे मिल गई? राजनीतिक बिरादरी में यह भी चर्चा है कि जिस कश्मीर में शाम ढलते ही नाके लगा दिए जाते हैं, वहां बारामूला जैसे जिले में देर शाम भला इतनी भीड़ जुटने कैसे दी गई? जमात-ए-इस्लामी से राशिद के गठबंधन पर भी सवाल उठ रहे हैं। उनके विपक्षियों को शक है कि राशिद अपने प्रत्याशियों के साथ निर्दलीय उम्मीदवार को जिताने की कोशिश करेंगे। जरूरत पड़ने पर निर्दलीय विधायक ‘कहीं भी’ यानी भाजपा के पाले में भी जाने को स्वतंत्र होंगे।
इस शक-शुबहे का खात्मा खुद इंजीनियर राशिद को करना चाहिए, पर वह भी पहेलियां बुझा रहे हैं। वह अनुच्छेद-370 और जनमत संग्रह जैसे संवेदनशील मुद्दों पर सीधा जवाब देने के बजाय, प्रश्नकर्ता को इतिहास की कंदराओं में भटकाने का प्रयास करते हैं। उनका निशाना नेशनल कॉन्फ्रेंस के आदि पुरुष शेख अब्दुल्ला से लेकर ‘मैडम’ यानी महबूबा मुफ्ती तक होते हैं? वह यहां तक कहते हैं कि महबूबा मुफ्ती की पार्टी का जन्म एक ‘मिलिट्री कैंप’ में हुआ था। राशिद ने भी कश्मीर के वरिष्ठ नेताओं की तरह संदेहों के नए बबूल रोपना सीख लिया है। सज्जाद लोन और चुनावी समर के अन्य योद्धा भी इसी रास्ते पर चल रहे हैं। 
कश्मीर और कश्मीरियों को इन प्रवृत्तियों ने ही लहूलुहान किया है। 
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही इस रवायत ने वहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर भी असर डाला है। मैं खुद ऐसे तमाम लोगों से मिला हूं, जो दिल्ली में कुछ, जम्मू में कुछ और श्रीनगर में बिल्कुल उल्टा बोलने के अभ्यस्त हैं। प्रवंचनाओं के इस सतत अभ्यास ने वहां के साधारण जन को भी दोहरे मानदंड जीने पर मजबूर कर दिया है। यहां ऐसे लोगों की बड़ी जमात है, जो आम मजलिसों में अलगाववाद के समर्थन की दावेदारी करते हैं और रात के अंधेरे में सुरक्षा बलों व खुफिया दस्तों को जरूरी ‘टिप्स’ बांटते फिरते हैं। इनके लिए दहशतगर्द और बंदूकधारी पुलिस के जवान एक बराबर हैं।
इस माहौल में अगर जम्मू-कश्मीर की अगली विधानसभा की सफलता पर अभी से सवाल उठ रहे हैं, तो आश्चर्य कैसा? आप पूछ सकते हैं कि अगर ऐसा है, तो दहशत से कठुआए इलाकों में भी लोग मतदान को क्यों उमड़ पडे़? तय है, नेता कुछ भी कहें, पर वहां का अवाम बंदूकों की कारगुजारी से तंग आ चुका है। उसे अब अलगाव की आग नहीं, तरक्की की ललक लुभावनी लगने लगी है। यही वह मुकाम है, जहां अमन-ओ-अमान की उम्मीदें प्रतिकूल हालात में भी पुरजवान होने का ख्वाब बुन पाती हैं। हमें इसी आस को विश्वास देना होगा। 

@shekharkahin 

@shashishekhar.journalist

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