कोरोना डायरी 3 : पैसे हर जरूरत कहाँ पूरी करते हैं
24 मार्च 2020, रात 8.30 बजे अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपना उद्बोधन खत्म किया है। उन्होंने घोषणा की कि पूरे देश के लोगों को आज रात 12 बजे से आने वाले 21...
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24 मार्च 2020, रात 8.30 बजे
अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपना उद्बोधन खत्म किया है। उन्होंने घोषणा की कि पूरे देश के लोगों को आज रात 12 बजे से आने वाले 21 दिनों तक अपने घरों में बंद रहना होगा। इस दौरान घर से बाहर न निकलें क्योंकि इससे कोरोना का बढ़ाव बाधित करने का अकेला यही उपाय है । आज मोदी 19 मार्च से अलग लग रहे थे। 19 मार्च को जनता कर्फ़्यू का आवाहन करते वक़्त मोदी कुछ सकुचाए और संशकित से थे। पर देश ने जिस तरह उस आहवान को अपने ऊपर स्वेच्छा से ओढ़ा ,वह अभूतपूर्व था। यही क्यों, तब से लेकर अब तक धीमे-धीमे सड़कों पर से आमदरफ़्त छीजती जा रही थी।
बताने की जरूरत नहीं कि 22 मार्च का जनता कर्फ़्यू कुछ जन-जागृति, तो कुछ आम आदमी की नब्ज समझने का फार्मूला था। वे इसमें कामयाब रहे थे। इस दौरान लोगों ने खुद को समझा लिया है कि बचाव का एक ही जरिया है- निषेध। वे हर निषेधाज्ञा स्वीकार करने को तैयार हैं।अगर देश के लोग 21 दिन की कठोर पाबंदी का स्वत: पालन करते हैं, तो यह भारतीय मनीषा की जागृति की मिसाल मानी जाएगी। भला होगा अगर राजसत्ता और रियाया के बीच ऐसा ही रिश्ता बना रहे और राजनीतिक विद्वेष उसमें आड़े न आएं।हालांकि ,इसकी परख आने वाले दिनों में होगी और मैं कोरोना डायरी के जरिए उन्हें आंकता-मापता रहूंगा। इस उजली आस के कुछ स्याह पहलू भी हैं । प्रधान मंत्री ने दिलासा दिया था कि ज़रूरी सामान की क़िल्लत नहीं होने दी जाएगी पर उनका भाषण ख़त्म होते - होते पूरे देश में लोग दूक़ानों की ओर दौड़ पड़े ।ऐसे वक़्तों में ऐसा होता आया है । आज दिन में भी तो ऐसे ही नज़ारे देखने को मिल रहे थे ।
अपराह्न 2.30 बजे
भय और आशंका की कोई सीमा नहीं होती। होती है, तो बस एक अंधी सुरंग। आप एक बार उसमें दाखिल हो जाएं या फिर धकेल दिए जाएं, तो एक घुप्प अंतहीन गली के तिलिस्म की तरह बस बढ़ते जाते हैं। आप ज्यों-ज्यों उसमें धंसते हैं, उम्मीदें लड़खड़ाती जाती हैं। यही वजह है कि हम अपने चारों ओर स्वार्थ और संवेदनहीनता का आलम पनपता हुआ पा रहे हैं। दूध की दुकानों पर भीड़ है। जो दो लीटर से काम चलाते थे, वो दस लीटर हथिया लेना चाहते हैं। क्या मालूम कल क्या हो? आज सुबह बालकनी से देखा, नीचे के डिपार्टमेंटल स्टोर पर लोग झगड़ रहे थे। ये वे लोग हैं, जो एक चारदीवारी के अंदर रहते हैं। उन्हें मालूम है, हमें यही रहना है, फिर भी झगड़ रहे हैं। सबको आवश्यकता से कई गुना अधिक दूध, ब्रेड, किराने का सामान और यहां तक कि सौंदर्य प्रसाधन भी चाहिए।
डिपार्टमेंटल स्टोर की मालकिन ने दरवाजे पर मोटी रस्सी लगा दी है। अपना ऑर्डर लिखकर लाइए, काउंटर पर परची रखिए और अपनी बारी की प्रतीक्षा कीजिए। इसमें भी विवाद हो रहे हैं। दूसरे की परची देखकर लोगों को लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि ये इतना भर लें कि मेरी बारी आने से पहले सब समाप्त हो जाए। जिसे खुद जमा खोरी की पड़ी है, वह दूसरों की जमाख़ोरी से व्यथित है । गलियों, मोहल्लों, सोसायटियों, कालोनियों में अधिकांश दुकाने बंद हैं। अगर खुली हैं, तो बहुत कुछ उनके पास नहीं है। स्टोर भरने से पहले खाली हो रहे हैं। मुझे 1960 और ‘70 के दशक के राशन वाले दिन याद आ रहे हैं। सरकार कानून बनाती थी कि एक परिवार को इतनी चीनी, चावल, गेहूं अथवा केरोसिन ऑयल मिलेगा। राशन वाले गेहूं-चावल में कंकड़ और केरोसिन में पानी मिला देते थे। फिर भी उनकी दुकान खुलने से पहले लाइन लग जाती थी और लाइन खत्म होने से पहले दुकान बंद हो जाती। उन दिनों राशन की दुकान का मालिक तकदीर वाला समझा जाता था। आज ऐसे तमाम तकदीर वाले हमारे आसपास उग आए हैं क्योंकि लोग उन्हें एम.आर.पी. से ज्यादा दाम देने के लिए उतावले हैं। ऐसे में उनका क्या, जो रोज कुंआ खोदकर पानी पीते हैं। जेबें खाली हो चुकी हैं। शीघ्र ही रसोई रीति पड़ सकती है। सरकारें उनके लिए योजनाएं घोषित कर रही हैं। घोषणाओं और हकीकत का ़फर्क मुफलिसों के पेट बखूबी समझते हैं। बेबसी बढ़ती जा रही है।
उधर, अस्पतालों में बेबस डाक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की फौज जैसे अनहोनी का इंतजार कर रही है। उनके पास कोरोना से लड़ने के लिए दस्ताने, लिबास इत्यादि नहीं हैं। दवाओं का रोना इसलिए भी क्योंकि अभी तक इस महामारी का कोई सर्वमान्य इलाज ही नहीं मिल सका है। कल दिल्ली में बेहद कारुणिक दृश्य दिखाई पड़ा। एक बुजुर्ग सज्जन किसी वजह से चक्कर खाकर गिर पड़े। लोगों को लगा कि ये कोरोना का मरीज है और वे भाग लिए। बड़ी मुश्किल से डॉक्टर उन तक पहुंचा। स्ट्रेचर और एम्बुलेंस की व्यवस्था तत्काल हो न सकी। खुरदरी जमीन पर पड़े असहाय मानव की जाँच करता हुआ डॉक्टर भी असहाय नजर आ रहा था। असहाय तो वे लोग भी हैं, जो कार्यस्थल से मीलों-मील चलकर अपने ठिकानों तक पहुंच रहे हैं। उनके बिना कूड़ा नहीं उठ सकता, सफाई नहीं हो सकती। तमाम जरूरी काम-काज के लिए हमारी तहजीब इन्हीं पुरुषार्थियों पर निर्भर है। इन्हें श्रम कानून की कोई शरण प्राप्त नहीं है। उचित चिकित्सा, वेतन और सुविधाओं के अभाव में भी वे हमारी सुविधाओं के दरवाजे खोलते हैं। ऐसे दिन तो इनके लिए अमावस से भी अधिक अंधियारा लाते हैं। अंधेरे में बैठे इन लोगों पर कोई नजर नहीं डालता।
एक नई प्रजाति इस बीच पनपी है। वे हैं निजी सुरक्षागार्ड। बिना मास्क और दस्तानों के वे सुरक्षा में लगे हुए हैं। हालांकि, पुलिस वाले भी उनसे बहुत बेहतर नहीं हैं फिर भी दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। एक को सरकारी संरक्षण हासिल है और दूसरा उसके सपने तक नहीं देख सकता। हमने हकीकत और ख्वाबों के बीच रेत के तपते महापर्वत खड़े कर दिए हैं। आप उन्हें चाहकर लांघ नहीं सकते । आज दफ्तर आते समय नोएडा के सेक्टर18 स्थित गुरुद्वारे के पास एक अजीब दृश्य देखा। एक मैली-कुचैली औरत विभिन्न आयुवर्ग के चार बच्चों के साथ घूम रही थी। जरूरी नहीं कि वे उसके अपने बच्चे हों। भिक्षाटन वालों की वंशावली डी.एन.ए. नहीं, जिस्मानी जरूरियात पर चलती है। गाड़ी धीमी करने पर पाता हूं कि ये तो वे लोग हैं, जो लालबत्ती पर खिड़कियां खटखटा कर भीख मांगते हैं। बाजार बंद हैं, गाड़ियां नदारद। मैं रोककर उन्हें पांच सौ रुपये देता हूं। वह महिला, जो ‘हेकड़ी’ से भीख मांगती नजर आती थी, इस समय सहमी-सहमी है। हेकड़ी शब्द के इस्तेमाल पर चौंकियेगा मत। महानगरों में भिक्षाटन अरबों का कारोबार है। समूचा तंत्र माफिया द्वारा संचालित होता है और इसीलिए इन भिखमंगों से निपटना आसान नहीं।
...पर आज वह सहमी हुई थी। संरक्षण की कोई उम्मीद उसके चेहरे पर नहीं थी। मैंने पैसे दिए, तो एक क्षण को उनका चेहरा खिला। फिर उसी में से एक बच्चा बोला, कोई होटल तो खुला नहीं है, मिलेगा क्या?उसके लिए खाने के ठेले होटल हैं । मेरी आंखें भर आईं। उस समय अवश था। पैसे के अलावा दे भी क्या सकता था?पैसे आपकी हर जरूरत हमेशा पूरी कर दें, यह संभव नहीं।
शाम 4.30 बजे
बाहर बादल गरजने लगे हैं। सवेरे से दोपहर तक कड़ी धूप थी। अगर पानी बरसा, तो यह अच्छा नहीं होगा। मौसम का यह उतार-चढ़ाव वैसे भी सर्दी-जुकाम करता है। और सर्दी-जुकाम इस विरल वक्त में बहुत बड़ा रोग हो गये हैं। आपको खांसता देखकर कोई भी कोरोना-कोरोना चिल्ला देगा और फिर सिर्फ आपकी ही नहीं, आपके समूचे परिवार की आफत आ जाएगी। सैकड़ों लोग अपने गांव-घर में इस दंश को झेल रहे हैं।यह दंश है कि बढ़ता जा रहा है, किसी मुफ़लिस की मजबूरी की तरह।
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