गिरफ्तार लोगों को भी पूरा अधिकार
- संविधान के किसी सुधी विद्यार्थी से आज यदि यह यक्ष प्रश्न पूछा जाए कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है, तो इसका उत्तर देने में वह तनिक भी देर नहीं करेगा। वह कहेगा कि संविधान के लागू होने के 75 वर्ष बाद आज भी किसी गिरफ्तार-बीमार को अस्पताल के बिस्तर से बांधकर…
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हरबंश दीक्षित, विधि विशेषज्ञ
संविधान के किसी सुधी विद्यार्थी से आज यदि यह यक्ष प्रश्न पूछा जाए कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है, तो इसका उत्तर देने में वह तनिक भी देर नहीं करेगा। वह कहेगा कि संविधान के लागू होने के 75 वर्ष बाद आज भी किसी गिरफ्तार-बीमार को अस्पताल के बिस्तर से बांधकर रखा जाता है। आज भी उसे गिरफ्तारी का कारण नहीं बताया जाता है और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने से बचा जाता है, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।
हमारे संविधान ने हमें जीवन और दैहिक स्वतंत्रता का मूल अधिकार दिया है। अनुच्छेद—21 के इस अधिकार को हमारी अदालतों ने भी मानवीय विस्तार दिया है। अदालतों ने साफ किया है कि जीने के अधिकार का मतलब केवल पशुवत अस्तित्व नहीं है, अपितु इसका तात्पर्य यह है कि हमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार होगा। यथासम्भव हथकड़ी-बेड़ी नहीं लगाई जाएगी, शुद्ध हवा मिलेगी तथा स्वच्छ पानी मिलेगा। हमारा संविधान यह मानता है कि केवल गिरफ्तार होने से ही हमारे सभी अधिकार समाप्त नहीं होते हैं, बल्कि न्याय सुनिश्चित करने के लिए कुछ अलग अधिकार भी मिलते हैं। जैसे अनुच्छेद-22 में कहा गया है कि गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी का कारण बताया जाएगा, ताकि वह अपनी रक्षा कर सके। उसे अपनी पसंद के वकील से परामर्श की अनुमति होगी तथा यह भी कि गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाएगा, ताकि पुलिस के सम्भावित दुर्व्यवहार से उसे पर्याप्त सुरक्षा मिल सके।
संविधान के विद्यार्थी के आश्चर्य की सबसे बड़ी वजह यह है कि आम लोगों के लिए आज भी गिरफ्तार किए गए बीमार व्यक्ति के लिए अनुच्छेद-21 और 22 केवल काले अक्षरों का समूह है। उन्हें आज भी कई जगह जंजीरों में बांधकर रखा जाता है। बगैर लिखत-पढ़त के थाने में लंबे समय तक बैठाया जाता है और गिरफ्तारी का कारण भी नहीं बताया जाता है। अपनी पसंद के वकील की मदद लेना तो बहुत दूर की बात है। सबसे त्रासद यह कि इन बुनियादी अधिकारों के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत तक जाना पड़ता है। यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि देश की बड़ी आबादी सुप्रीम कोर्ट तक जाने की कल्पना भी नहीं कर सकती। अफसोस, कई जगह पुलिस अपने रवैए में बदलाव नहीं कर रही है, तो अन्याय के शिकार अधिकतर लोग आज भी अपने मूल अधिकारों से वंचित रह जाते हैं।
बीती 7 फरवरी, 2025 को इसी तरह का एक मुकदमा जब सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया, तब उसकी तीखी टिप्पणी भी सामने आई। प्रस्तुत मामले में पुलिस ने संविधान की सरासर अनदेखी की थी। 10 जून, 2024 को तकरीबन एक साल पुरानी प्राथमिकी के आधार पर विहान कुमार को गुरुग्राम के उनके दफ्तर से साढ़े दस बजे गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें अगले दिन 11 फरवरी, 2025 को मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया। तब तक 24 घंटे से ज्यादा समय गुजर चुका था, जो अनुच्छेद-22 में दिए गए मूल अधिकार का उल्लंघन था। अभियुक्त की गिरफ्तारी के समय उसे कारण नहीं बताया गया, जबकि अनुच्छेद-22 के अंतर्गत यह हर भारतीय का मूल अधिकार है। हद तो तब हो गई, जब बीमार होने के बावजूद विहान कुमार को अस्पताल में हथकड़ी लगाकर बिस्तर से बांध दिया गया। और तो और, जिला अदालत और उसके बाद उच्च न्यायालय से भी उन्हें न्याय नहीं मिल पाया और सर्वोच्च न्यायालय का द्वार खटखटाने के लिए मजबूर होना पड़ा। सुनवाई हुई, तो गिरफ्तारी के 9 महीने और 27 दिन बाद उन्हें न्याय मिल सका। न्यायमूर्ति अभय एस ओका तथा न्यायमूर्ति एन के सिंह की पीठ ने विहान कुमार को छोड़ने का आदेश दिया और आगे ऐसी घटना की पुनरावृत्ति रोकने के लिए व्यापक निर्देश भी जारी किए।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी के समय अभियुक्त को गिरफ्तारी का कारण बताया जाना केवल औपचारिकता नहीं है, अपितु यह उसका मूल अधिकार है। अभियुक्त को समझ में आने वाली भाषा में उसे गिरफ्तारी का कारण बताया जाना चाहिए, ताकि वह प्रभावी तरीके से अपना बचाव कर सके। इसका पालन नहीं किए जाने पर गिरफ्तारी अवैध मानी जाएगी। अभियुक्त को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने अवश्य पेश किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने जिला अदालतों और उच्च न्यायालयों को भी निर्देश किया कि उनके सामने यदि गिरफ्तारी से जुड़ा कोई मामला आता है, तो वे यह सुनिश्चित करें कि अभियुक्त के अधिकारों की किसी भी तरह से अनदेखी नहीं हो।
सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस की अमानवीयता पर चिंता और आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा है कि संविधान के अनुच्छेद-21 में प्रदत्त जीवन के अधिकार का मतलब केवल पशुवत अस्तित्व से नहीं है, अपितु इसका मतलब है कि गिरफ्तार व्यक्ति को भी मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। अदालत ने आगे कहा कि किसी भी बीमार व्यक्ति को चाहे वह अभियुक्त ही क्यों न हो, हथकड़ी लगाकर अस्पताल के बिस्तर से बांधना मानवीय गरिमा के विरुद्ध है। अदालत ने हरियाणा सरकार को निर्देश जारी किया कि वह यह सुनिश्चित करे कि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति नहीं हो।
सात साल से अधिक कारावास के मामलों में गिरफ्तारी पर न्यायालय ने व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए हैं। अदालत ने पुरानी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41(1) तथा मौजूदा भारतीय नागरिक सुरक्षा कारावास 35 का हवाला देते हुए कहा है कि सात वर्षों से अधिक के कारावास से दंडनीय अपराधों की सूचना मिलने पर पुलिस केवल तभी गिरफ्तारी कर सकती है, जब उसके पास इस तथ्य पर विश्वास करने का पर्याप्त कारण हो कि अभियुक्त ने अपराध किया है। पुलिस गिरफ्तारी प्रक्रिया को कतई हल्के में न ले। गिरफ्तारी की स्थिति में अभियुक्त की प्रतिष्ठा और जीवन का अधिकार दांव पर लगा होता है, इसलिए सात वर्षों से अधिक अवधि के लिए दंडनीय अपराधों में भी गिरफ्तारी से पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके पास पर्याप्त साक्ष्य हैं या अभियुक्त के भाग जाने की आशंका है। इस ताजा फैसले का दूरगामी प्रभाव होने वाला है।
गिरफ्तारी के मामलों में 1997 का डी के बासु के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए थे। उनका पालन करने के लिए देश भर में अभियान चलाया गया था। फिर भी विहान कुमार जैसे मामलों के होने से यह प्रश्न खड़ा होता है कि आखिर अदालत के प्रयासों के बावजूद इन सांविधानिक प्रावधानों को अमली जामा क्यों नहीं पहनाया जा सका है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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