मणिपुर में बहुत इंतजार के बाद इस्तीफा
- बहुत पुरानी कहावत है कि देर आयद दुरुस्त आयद, पर बीते करीब 21 महीने से बडे़ पैमाने पर जातीय हिंसा की आग में जल रहे मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के इस्तीफे पर ऐसा नहीं कहा जा सकता। दशकों तक उग्रवाद की मार से जर्जर…
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प्रभाकर मणि तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार
बहुत पुरानी कहावत है कि देर आयद दुरुस्त आयद, पर बीते करीब 21 महीने से बडे़ पैमाने पर जातीय हिंसा की आग में जल रहे मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के इस्तीफे पर ऐसा नहीं कहा जा सकता। दशकों तक उग्रवाद की मार से जर्जर इस पर्वतीय राज्य में मुख्यमंत्री के इस्तीफे ने जहां स्थानीय राजनीति को अनिश्चित बना दिया है, वहीं राज्य के आगे की राह मुश्किल कर दी है। दिल्ली जाने से पहले महाकुंभ में डुबकी भी बीरेन सिंह की कुर्सी बचाने में नाकाम रही।
मणिपुर में 3 मई, 2023 को मैतेई और कुकी समुदाय के बीच शुरू हुई हिंसा के बाद से ही मुख्यमंत्री बीरेन सिंह पर इस आग में घी डालने के आरोप लगते रहे थे, पर उन्होंने या भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने स्थानीय लोगों की भावनाओं को समझने में या तो गलती की या फिर अनदेखी का फैसला किया। सरकारी आंकड़ों को मानें, तो मणिपुर में अब तक की हिंसा में 258 लोगों की मौत और करोड़ों की संपत्ति स्वाहा हो चुकी है। अब भी हिंसा के कारण विस्थापित हजारों लोग राहत शिविरों में दिन गुजारने पर मजबूर हैं। मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग भी हिंसा के शुरुआती दौर में ही उठ रही थी। मुख्यमंत्री के इस्तीफे ने पहले से ही कई समस्याओं से जूझ रहे राज्य को अनिश्चित भविष्य की ओर धकेल दिया है। अब कई सवाल पैदा हो गए हैं। क्या पार्टी का शीर्ष नेतृत्व बीरेन सिंह की जगह किसी बागी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपेगा या राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाएगा? अतीत में मणिपुर उग्रवादी हिंसा और राष्ट्रपति शासन के लंबे दौर का गवाह रहा है। क्या वही सब दोहराया जाएगा? ऐसे सवालों के जवाब तो धुरंधर राजनीतिक पंडितों के पास भी नहीं हैं।
एक बात साफ है, मुख्यमंत्री के इस्तीफे के बाद भी दोनों समुदायों के बीच लगातार चौड़ी होने वाली खाई को पाटना असंभव की हद तक मुश्किल है। कुकी संगठनों ने साफ कर दिया है कि बीरेन सिंह के इस्तीफे के बावजूद समस्या जस की तस ही रहेगी। ऐसे तमाम संगठन अब अलग प्रशासनिक इलाके की मांग पर अड़ गए हैं। कुकी-जो संगठनों के सबसे बड़े फोरम कुकी-जो काउंसिल (केजेडसी) के प्रवक्ता गिंजा वुआलजांग का कहना था कि मैतेई तबके ने हमें अलग कर दिया है। सैकड़ों लोगों का खून बह चुका है। अब पहले जैसी स्थिति बहाल होना संभव नहीं है। हमें अलग प्रशासन चाहिए। अब हमारे लिए यही राजनीतिक समाधान है। कुकी-जो काउंसिल के अध्यक्ष एच थांगलियट कहते हैं कि बीरेन सिंह की जगह अगर मणिपुर घाटी से मैतेई समुदाय का दूसरा कोई नेता मुख्यमंत्री बनता है, तो राज्य की समस्या जस की तस ही रहेगी। इस्तीफा बहुत देर से आया है और अब राष्ट्रपति शासन ही एकमात्र विकल्प होना चाहिए।
दरअसल, बीरेन सिंह के खिलाफ कुकी संगठनों में इतनी नाराजगी है कि अब उनके इस्तीफे से खास फर्क नहीं पड़ेगा। सबसे बड़ा सवाल है कि बीरेन सिंह ने आखिर उस वक्त इस्तीफा क्यों नहीं दिया, जब राज्य में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़की थी और उनके इस्तीफे की मांग लगातार तेज हो रही थी? दरअसल, बीरेन सिंह या पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को अनुमान नहीं था कि मामला इतना बिगड़ जाएगा कि सत्ता हाथ से निकलने की नौबत आ जाएगी। विपक्ष ने 10 फरवरी को शुरू होने वाले विधानसभा के बजट अधिवेशन के दौरान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का नोटिस दिया था। जानकारों की मानें, तो भाजपा के कम से कम एक दर्जन विधायक, जो कई महीनों से नेतृत्व परिवर्तन की मांग कर रहे थे, इस अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन करने का मन बना चुके थे। यही वजह है कि बजट अधिवेशन से ठीक पहले बीरेन सिंह अपने कुछ भरोसेमंद लोगों के साथ अचानक दिल्ली पहुंचे और वहां पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत कई शीर्ष नेताओं के साथ मुलाकात की। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व सदन में बहुमत हासिल करने में नाकाम रहने जैसी अप्रिय स्थिति पैदा नहीं होने देना चाहता था। इससे पार्टी के पक्ष में बना वह सकारात्मक माहौल खत्म हो जाता, जो दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत के बाद बना है।
बीती 3 फरवरी को राज्य के ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री युमनाम खेमचंद सिंह ने दिल्ली में केंद्रीय नेताओं को चेताया था कि अगर नेतृत्व परिवर्तन नहीं हुआ, तो सरकार का पतन तय है। उसके बाद 4 फरवरी को राज्यपाल अजय कुमार भल्ला ने भी गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी।
वैसे, बीरेन सिंह इससे पहले 30 जून, 2023 को भी इस्तीफा देने का नाटक कर चुके हैं। तब जातीय हिंसा को करीब दो महीने हुए थे। भीड़ ने उनके आवास को घेर लिया था। उसके बाद सिंह के भरोसेमंद मंत्री एल सुसिंद्रो मैतेई ने वह इस्तीफा भीड़ को सौंप दिया था, जिसने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे, तब राजनीतिक हलकों में उसे बीरेन सिंह का नाटक माना गया था।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि आगे क्या होगा? पार्टी के नेताओं की मानें, तो केंद्रीय नेतृत्व अगर बीरेन सिंह की जगह किसी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपने का फैसला करता है, तो इस दौड़ में विधानसभा अध्यक्ष टी सत्यब्रत सिंह और युमनाम खेमचंद सबसे आगे हैं। वैसे, किसी नाम पर आम राय नहीं बनने की स्थिति में कुछ महीनों के लिए राष्ट्रपति शासन के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है। पार्टी में इस मुद्दे पर गंभीर मंथन चल रहा है। बीरेन सिंह और उनकी सरकार के खिलाफ पार्टी में बढ़ती सुगबुगाहट के बीच ही केंद्र ने बीते 24 नवंबर को अजय कुमार भल्ला को राज्यपाल बनाया था। उनको इस इलाके में काम करने का पर्याप्त अनुभव है। भल्ला ने प्रशासनिक स्तर पर पर्वतीय इलाकों में फेरबदल की शुरुआत जरूर की थी, पर इससे पार्टी में असंतोष के सुरों को दबाया नहीं जा सका।
मैतेई समुदाय में बीरेन सिंह के मजबूत जनाधार को ध्यान में रखते हुए ही केंद्र अब तक उनको हटाने के हर प्रयास को खारिज करता रहा था, मगर धीरे-धीरे उसके सामने साफ होने लगा था कि बीरेन सिंह के मुख्यमंत्री रहते मैतेई व कुकी तबके के बीच की खाई को पाटना असंभव होगा। इसकी वजह यह थी कि उनके खिलाफ ही इस खाई को चौड़ा करने के आरोप लगते रहे थे।
राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति को ध्यान में रखते हुए विधानसभा का बजट अधिवेशन फिलहाल स्थगित जरूर कर दिया गया है, पर अगले दो-तीन दिन राज्य के लिए अहम हैं। इसी बीच बजट सत्र बुलाने का फैसला होगा। विधानसभा का अधिवेशन खत्म होने के बाद ही बीरेन सिंह और मणिपुर की किस्मत का फैसला होगा। तब तक इंतजार ही किया जा सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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