डोनाल्ड ट्रंप ने छेड़ दिया व्यापार युद्ध
- ट्रेड वार, यानी व्यापार युद्ध मिसाइलों और तोपों से नहीं लड़े जाते, पर ये उतनी ही तबाही मचा सकते हैं। ये युद्ध आंकड़ों, नीतिगत दांव और राजनीतिक वीरता से लड़े जाते हैं। यह जंग अब कहां शुरू हुई? असल में, अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने…
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गौरव वल्लभ, अर्थशास्त्री व भाजपा नेता
ट्रेड वार, यानी व्यापार युद्ध मिसाइलों और तोपों से नहीं लड़े जाते, पर ये उतनी ही तबाही मचा सकते हैं। ये युद्ध आंकड़ों, नीतिगत दांव और राजनीतिक वीरता से लड़े जाते हैं। यह जंग अब कहां शुरू हुई? असल में, अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने नए टैरिफ का प्रस्ताव रखकर आर्थिक तोप का एक ऐसा गोला दागा है, जो वैश्विक बाजार को हिला सकता है और व्यापारिक रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर सकता है।
टैरिफ किसी भी देश के आर्थिक शस्त्रागार का सबसे पुराना शस्त्र है। मुक्त व्यापार समझौतों और विश्वव्यापी मूल्य शृंखलाओं के आने से पहले राज्यों व शासकों ने इसका ढाल और तलवार, दोनों रूपों में इस्तेमाल किया, ताकि घरेलू उद्योगों को वे प्रतिस्पद्र्धा से बचा सकें और जवाबी टैरिफ के साथ प्रतिस्पद्र्धी अर्थव्यवस्था पर हमला बोल सकें। ब्रिटिश राज ने इस खेल को बखूबी खेला, भारत के उद्योगों को टैरिफ के भार से दबाया और यह सुनिश्चित किया कि उप-महाद्वीप ब्रिटिश उत्पादों से भर जाए। भारत ने इससे सबक सीखा। आजादी के बाद के संरक्षणवाद से लेकर आज के समय में आयात शुल्क लगाने की सोची-समझी नीति तक, हमने टैरिफ का इस्तेमाल राष्ट्रीय हितों की रक्षा और अपने उद्योगों को बढ़ावा देने में किया है। मगर अब इतिहास खुद को दोहरा रहा है। हां, इस बार युद्ध का मैदान वैश्विक है, दांव ऊंचे हैं और खिलाड़ी पहले की तुलना में कहीं अधिक परस्पर जुड़े हुए हैं। सवाल यह है कि क्या टैरिफ की यह नई लहर अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत करेगी या खुद हमारा ही नुकसान करेगी?
कनाडा व मेक्सिको पर 25 फीसदी और चीन पर 10 फीसदी टैरिफ लगाने की डोनाल्ड ट्रंप की नई घोषणा ने आर्थिक अस्थिरता का एक नया दौर शुरू कर दिया है। ‘अमेरिका प्रथम’ की नीति के साथ शुरू हुई यह जंग विश्व व्यापार को नया रूप देने जा रही है और सरकारों व उद्योगों को अपनी रणनीतियों पर फिर से सोचने को मजबूर कर रही है। इसके तात्कालिक परिणाम स्पष्ट हैं- आयात लागत का बढ़ना, आपूर्ति शृंखला में रुकावट और बहुराष्ट्रीय कारोबार में अनिश्चितता की लहर। उत्तरी अमेरिका में काम करने वाली ऑटोमोटिव, इलेक्ट्रॉनिक्स और उपभोक्ता वस्तु बनाने वाली कंपनियों की लागत अब खास तौर पर बढ़ने लगी है। इसका असर उपभोक्ताओं पर पड़ सकता है, जब विदेशी प्रतिस्पद्र्धी कंपनियां बढ़े हुए शुल्क का सामना करती हैं, तब घरेलू कंपनियां भी अमूमन अपनी कीमतें बढ़ा देती हैं। माना जा रहा है कि नए टैरिफ के कारण अमेरिका में हर साल बिकने वाली करीब 1.6 करोड़ कारों की कीमतों में 3,000 डॉलर का इजाफा हो सकता है।
इस टैरिफ का असर अमेरिकी सीमाओं तक सीमित नहीं रहेगा। बेशक, अमेरिका मजबूत घरेलू बाजार के कारण सुरक्षित रह जाए, लेकिन कनाडा और मेक्सिको जैसे देशों को, जहां जीडीपी में कारोबार की हिस्सेदारी 70 फीसदी तक है, काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। ब्लूमबर्ग इकोनॉमिक्स का अनुमान है कि चुनिंदा उत्पादों पर 25 फीसदी टैरिफ से मेक्सिको की जीडीपी को 16 फीसदी का नुकसान हो सकता है। यह एक ऐसा झटका है, जो पूरे लैटिन अमेरिका में फैल सकता है।
यहां चीन की चर्चा भी जरूरी है, क्योंकि उसके लिए व्यापार युद्ध कोई नई बात नहीं है, मगर पिछले कुछ वर्षों में उसने अपनी आर्थिक निर्भरता को कई हिस्सों में बांट दिया है। इसके कारण उसकी जीडीपी में आयात और निर्यात की हिस्सेदारी महज 37 फीसदी रह गई है, जो 2000 के दशक की शुरुआत में 60 फीसदी से ज्यादा थी। बेशक नया अमेरिकी टैरिफ उसे परेशान करेगा, पर वह पहले की तुलना में कहीं अधिक सुरक्षित है।
जहां तक विश्व अर्थव्यवस्था की बात है, तो सवाल सिर्फ टैरिफ का नहीं, बल्कि विश्वास का है। वर्षों की श्रमसाध्य मेहनत से तैयार व्यापार समझौते अब नाजुक लगने लगे हैं। नियम-आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था के अब ऐसी व्यवस्था में बदल जाने का खतरा बढ़ गया है, जहां आर्थिक गठबंधन आपसी लाभ के बजाय सियासी सनक से निर्धारित होंगे। वैश्विक निर्माताओं की सबसे बड़ी चिंता एकीकृत आपूर्ति शृंखला में आने वाली बाधा है। जो उद्यमी पहले निर्बाध रूप से सीमा पार व्यापार करते थे, अब उन्हें ऊंची कीमत चुकानी होगी। इसी तरह, अन्य देशों ने भी अगर जैसे-को-तैसा की नीति अपनाई, तो दुनिया भर में व्यापार युद्ध छिड़ सकता है।
बहरहाल, हालात पर भारत की नजर बनी हुई है। कनाडा, मेक्सिको या चीन के विपरीत, हम पर इसका तत्काल असर तो नहीं पड़ने वाला। हालांकि, अमेरिकी व्यापार घाटे में नौवें सबसे बडे़ योगदानकर्ता के रूप में भारत भी ट्रंप के रडार पर है। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और हमारा आपसी कारोबार वित्त वर्ष 2024 में 77.5 अरब डॉलर पर पहुंच चुका है, जबकि 35 अरब डॉलर का ट्रेड सरप्लस भारत के पक्ष में है। जिन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बदलाव देखने को मिल सकते हैं, वे हैं- कपड़ा (वित्त वर्ष 2024 में 10 अरब डॉलर का कारोबार), इंजीनियरिंग (17.6 अरब डॉलर), इलेक्ट्रॉनिक्स (10 अरब डॉलर) और फार्मास्यूटिकल्स (8.7 अरब डॉलर का कारोबार)। हालांकि, ये बदलाव भी इस पर निर्भर करेंगे कि टैरिफ युद्ध के जवाब में वैश्विक व्यापार क्या रूप लेता है?
वैसे, यह हमारे लिए अवसर भी है। यदि चीन को अमेरिकी बाजार में रोका जाता है, तो उसकी जगह भरने में भारतीय निर्यातक कदम बढ़ा सकते हैं। इलेक्ट्रॉनिक और कपड़ा ऐसे ही उद्योग हैं। सुखद है, वैश्विक तनाव बढ़ने के बावजूद भारत के आम बजट में सीमा शुल्क की औसत दर 11.65 प्रतिशत से घटाकर 10.66 फीसदी कर दी गई है, जिससे विश्व व्यापार में सकारात्मक संदेश गया है। इससे आपसी विश्वास पर आधारित भारत-अमेरिका व्यापारिक रिश्ते के और मजबूत होने की उम्मीद है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आगामी अमेरिका यात्रा भी द्विपक्षीय संबंध को नया आकार देगी। भारत-अमेरिका के बीच मजबूत आर्थिक और कूटनीतिक रिश्तों को देखते हुए, यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि भारत इन चुनौतियों का प्रभावी ढंग से सामना कर लेगा। हमारा ध्यान मैन्युफैक्चरिंग को विस्तार देने, बुनियादी ढांचों को मजबूत बनाने और वैश्विक उथल-पुथल के बीच स्थिर विकल्पों की तलाश कर रहे कारोबारियों के लिए भारत को एक आकर्षक गंतव्य बनाने पर होना चाहिए। बेशक, दुनिया बढ़ते टैरिफ को लेकर चिंतित हो, लेकिन हमें अपने लक्ष्य पर स्थिर रहना चाहिए, जो है- दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और मैन्युफैक्चरिंग महाशक्ति बनना।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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