नया मनुष्य कैसे पैदा होगा
- जब तक धार्मिकता की हवा पैदा नहीं होती, तब तक वास्तविक धर्म और अखंड मनुष्य पैदा नहीं हो सकता। अखंडित मनुष्य अपने आप में पूर्ण है। उसकी पूर्णता ही उसकी पवित्रता है…
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चलिए साल तो नया हो गया, लेकिन मनुष्य? वह कैसा है- नया या पुराना? ओशो का पूरा दर्शन और कार्य नए मनुष्य के जन्म के लिए है। वह कहते हैं, नए मनुष्य में मानवता का पूरा भविष्य समाया हुआ है। सवाल यह है, यह नया मनुष्य कौन होगा और कहां से आएगा? यह हमारे भीतर से ही आएगा, लेकिन हम जैसे हैं, वैसे नहीं रह सकते, हमें बदलना होगा। उन्होंने बहुत साफ बिंदु दिए हैं कि नए मनुष्य की पहचान क्या होगी?
आदमी सुखी हो सकता है, अगर जो उसे मिल रहा है, उसे वह पूरे अनुग्रह से स्वीकार कर ले। अनुग्रह का भाव अंकुरित होता है हृदय में, लेकिन हृदय का द्वार सबका बंद पड़ा है। हमारी शिक्षा में, संस्कृति में, परवरिश में, कहीं भी हृदय को विकसित करना सिखाया नहीं जाता। जरा सोचें, जो मिला है, वह कितना अपूर्व है : इतनी सुंदर प्रकृति, रोज ऊगता नया सूरज, रात में निकलते चांद-तारे, सुफला-सुजला धरती, क्या इसके हम हकदार हैं? प्रतिपल अनुग्रह से जीना सीखें, तो सुख ही सुख है। सुख कोई बाहर किसी बैंक में रखा निवेश नहीं है, वह हर पल आपकी संवेदना में है। अगर एक नया मनुष्य पैदा करना है, तो हमें क्षण में सुख लेने की क्षमता और हर क्षण के प्रति आदर और अनुग्रह सीखना पड़ेगा।
दूसरे, आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि लोग धार्मिकता को समझें। जिसे लोग धर्म समझते हैं, वे धर्म नहीं हैं, वे चट्टानें हैं। धार्मिकता तो एक बहती हुई सरिता है, जो पग-पग पर मोड़ लेती, निरंतर अपने मार्ग बदलती, लेकिन अंतत: सागर तक पहुंचती है। धार्मिकता हृदय की खिलावट है। वह तो अपनी आत्मा, अपनी ही सत्ता के केंद्रबिंदु तक पहुंचने का नाम है। ध्यान रहे, आदमी किसी धर्म में पैदा नहीं होता, धर्म आदमी के भीतर पैदा होता है। धर्म की परिभाषा भगवान महावीर ने की है, वस्तु स्वभावो धर्म:। हर वस्तु का जो स्वभाव है, वह उसका धर्म है। जैसे, पानी का धर्म है नीचे की ओर बहना, भाप का धर्म है हवा में उड़ना। अग्नि का धर्म है गर्मी पैदा करना, माटी का धर्म है स्थिर रहना। मनुष्य भी निसर्ग का हिस्सा है, उसे अपना धर्म ढूंढ़ना जरूरी है। काश! पूरी धरती पर धार्मिकता फैल सकती, तो सारे धर्म विदा हो जाते। यह मनुष्य जाति के लिए एक महान वरदान होगा, जब मनुष्य केवल मनुष्य होगा- न ईसाई, न मुसलमान, न हिंदू!
जब तक धार्मिकता की हवा पैदा नहीं होती, तब तक वास्तविक धर्म और अखंड मनुष्य पैदा नहीं हो सकता। अखंडित मनुष्य अपने आप में पूर्ण है। उसकी पूर्णता ही उसकी पवित्रता है। वह इतना परितृप्त है कि फिर उसे दूर कहीं स्वर्ग में बैठे, उसकी देखभाल करने वाले किसी ईश्वर की मानसिक जरूरत नहीं रह जाती।
अमृत साधना
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