Hindi Newsओपिनियन संपादकीयhindustan editorial column 18 oct 2024

नागरिकता से न्याय

सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकता अधिनियम के अनुच्छेद 6ए की सांविधानिकता को बरकरार रखकर सही फैसला लिया है। वैसे पांच न्यायाधीशों की पीठ इस फैसले पर एकमत नहीं थी और अंतत: फैसला चार-एक से 6ए के पक्ष...

Pankaj Tomar हिन्दुस्तान, Thu, 17 Oct 2024 10:56 PM
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नागरिकता से न्याय

सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकता अधिनियम के अनुच्छेद 6ए की सांविधानिकता को बरकरार रखकर सही फैसला लिया है। वैसे पांच न्यायाधीशों की पीठ इस फैसले पर एकमत नहीं थी और अंतत: फैसला चार-एक से 6ए के पक्ष में आया है। भारतीय नागरिकता देने से संबंधित इस प्रावधान का विशेष महत्व है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से बांग्लादेश से आकर भारत में बसे उन लोगों को नागरिकता मिल जाएगी, जो जनवरी 1966 से 25 मार्च 1971 के बीच भारत आए हैं। अदालत में अनुच्छेद 6ए को एकाधिक याचिकाओं के जरिये चुनौती दी गई थी कि नागरिकता देने की कोई समय-सीमा न रखी जाए, लेकिन न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि असम में प्रवेश और नागरिकता देने के लिए 25 मार्च 1971 की अंतिम तिथि सही है। भारत के प्रधान न्यायाधीश धनंजय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा का बहुमत का फैसला इस बात पर सर्वसम्मत था कि साल 1985 में संसद द्वारा बनाया गया कानून एक विधायी समाधान है, जिसे संसद ने प्रभावी बनाया है। यह असम समझौता असमिया संस्कृति, विरासत, भाषायी और सामाजिक पहचान को सुरक्षित-संरक्षित करने के मकसद से किया गया था। 
जिस 6ए को चुनौती दी गई थी, उसकी पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। यह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार, असम सरकार और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के बीच खोजा गया एक सही सियासी समाधान था। असम में इस कानून के लिए विशेष रूप से छात्रों ने छह साल तक प्रदर्शन किया था, तब जाकर समझौता हुआ था और कानून बनाया गया था। यह कानून न बनता, तो शायद बांग्लादेश की ओर से लोगों का आना कम नहीं होता। वैसे एक पहलू यह भी है कि कानून बनने के बावजूद बांग्लादेश से लोगों का आना रुका नहीं है और इसी आधार पर एक न्यायाधीश बहुमत के फैसले से असहमत हैं। न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला के मुताबिक, सांस्कृतिक-सामाजिक संरक्षण का मकसद पूरी तरह से हल नहीं हुआ है और ऐसे में, अनुच्छेद 6ए को असांविधानिक माना जा सकता है। हालांकि, यह एक बहुत गंभीर सवाल है कि साल 1971 के बाद असम या भारत में आए लोगों को भी अगर स्वीकार कर लिया जाए, तो क्या होगा? ऐसी ढिलाई या उदारता अन्य लोगों को भी भारत आने के लिए उकसाएगी। अत: संस्कृति और आबादी के ढांचे को बचाने के लिए कडे़ कानूनों की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। 
आज लोगों का एक से दूसरे देश में अवैध पलायन और उसके बाद नागरिकता के सवाल पर भारत ही नहीं, हरेक देश का चिंतित होना स्वाभाविक है। सबको अपने हित में कानून बनाने व लागू करने का हक है। यह अच्छी बात है कि हमारी अदालतों को भी चिंता है कि भारतीय राज्य का चरित्र नहीं बदलना चाहिए। बाहर से आने वाली कोई भी संस्कृति स्थानीय बसावट को मुश्किल में डालती है। आजकल स्वयं बांग्लादेश म्यांमार से आई रोहिंग्या आबादी की वजह से बहुत परेशान है और वह अपनी परेशानी संयुक्त राष्ट्र में भी कई बार उठा चुका है। ध्यान देने की बात है कि मुस्लिम राष्ट्र बांग्लादेश में भी मुस्लिम रोहिंग्या को शरण देने में समस्या हो रही है और वह अपनी अर्थव्यवस्था व सामाजिकता के बारे में सोच रहा है। भारत को धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि अपने व्यापक सामाजिक-आर्थिक हित के आधार पर ही सोचना चाहिए और तभी किसी को नागरिकता देनी चाहिए। 

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