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हमेशा बना रहता मातृभाषा का महत्व

  • हर साल फरवरी की 21 तारीख को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। मातृभाषा का मतलब है, ऐसी भाषा, जिसे हम जन्म लेने के बाद सबसे पहले सीखते हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने कहा भी है, ‘है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी…

Hindustan लाइव हिन्दुस्तानThu, 20 Feb 2025 11:19 PM
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हमेशा बना रहता मातृभाषा का महत्व

हर साल फरवरी की 21 तारीख को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। मातृभाषा का मतलब है, ऐसी भाषा, जिसे हम जन्म लेने के बाद सबसे पहले सीखते हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने कहा भी है, ‘है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।’ सरल शब्दों में कहें, तो मातृभाषा की जगह दुनिया की कोई भाषा नहीं ले सकती। यही हमारी क्षमताओं को अच्छी तरह से निखारती है, जिसके कारण मातृभाषा में ही हर बच्चेको शिक्षित करने की बात बार-बार कही जाती है। दक्षिण अफ्रीकी क्रांति के महानायक नेल्सन मंडेला ने कहा था, यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं, जिसे वह समझता है, तो वह बात उसके दिमाग में बसती है और, अगर आप उससे उसकी भाषा में बात करते हैं, तो वह उसके दिल तक जाती है। सच यही है कि मातृभाषा हमारी असली पहचान है। भारत को अगर एकता के सूत्र में बांधना है, तो हमें अपनी मातृभाषा को उचित सम्मान देना ही होगा, साथ ही, हमें अपनी मातृभाषा पर गर्व की अनुभूति भी करनी होगी। मातृभाषा से ही हमारे राष्ट्र और समाज के उत्थान का मार्ग प्रशस्त होगा। हरिऔध ने कहा है- ‘कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा, जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा।’

मातृभाषा का महत्व हर वक्त बना रहता है। सैयद अमीर अली मीर ने कभी कहा था, देश में मातृभाषा के बदलने का परिणाम यह होता है कि नागरिक का आत्मगौरव नष्ट हो जाता है, जिससे देश का जातित्व गुण मिट जाता है। सच तो यह है कि मातृभाषा मनुष्य के विकास की आधारशिला हैै। यह मातृभाषा ही है, जिसके माध्यम से हम भावों की अभिव्यक्ति और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। यह हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देशप्रेम की भावना संचारित करती है। यह सामाजिक व्यवहार और सामाजिक अंत:क्रिया का आधार है। यही कारण है कि प्राय: सभी समाज अपनी शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को ही बनाते हैं। हमारे यहां भी नई शिक्षा नीति में मातृभाषा पर खास जोर दिया गया है और यह स्वीकार किया गया है कि नौनिहालों को मातृभाषा में ही शिक्षित करना फायदेमंद है।

आज जब दुनिया के तमाम देश अपनी-अपनी भाषा में शोध-अनुसंधान को आगे बढ़ा रहे हैं, तो हम क्यों नहीं ऐसा कर सकते? हमें भी मातृभाषा पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देना चाहिए और उसमें बुनियादी शिक्षा-दीक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस हमें इसी राह पर आगे बढ़ने को प्रेरित करता है।

सुनील कुमार महला, टिप्पणीकार

अब हर जगह छाया अंग्रेजी का दबदबा

दशकों से हम सुनते आए हैं कि मातृभाषा में शिक्षा से ही किसी छात्र की प्रतिभा का तेजी से विकास होता है। मगर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बावजूद हमारे देश में ऐसा संभव नहीं दिखता। एक तो पढ़ाई के माध्यम (भाषा) की समस्या और उससे भी ज्यादा ‘दोहरी शिक्षा व्यवस्था’! एक तरफ गांव और शहर के गरीबों या आम मेहनतकश लोगों के बच्चों के लिए हिंदी मीडियम वाले सरकारी या गैर-सरकारी स्कूल और दूसरी तरफ अमीरों, अफसरों और बड़े नेताओं के बच्चों के लिए महंगे अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूल! दिलचस्प यह भी कम नहीं है कि अपने देश में महंगे निजी स्कूलों को ‘पब्लिक स्कूल’ कहा जाता है! जबकि, हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं, ‘मातृभाषा में शिक्षा भारत में छात्रों के लिए न्याय के एक नए रूप की शुरुआत है, यह सामाजिक न्याय की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण कदम है।’ उनकी इस सोच में कोई समस्या नहीं है, बशर्ते यह धरातल पर उतरे। सवाल है कि पूरे देश में मातृभाषा में शिक्षा देने वाले कितने सरकारी स्कूल खोले गए और कितने बंद हुए? हमारे माननीयों के बच्चों को किन स्कूलों में शिक्षा मिल रही है? वे किस भाषा में शिक्षित हो रहे हैं? कितने गणमान्य लोगों के परिवारों के बच्चे मातृभाषा में या सरकारी स्कूल में शिक्षा ले रहे हैं? कितने ऐसे गणमान्य लोग हैं, जिनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षित हो रहे हैं? बेहतर होगा, सरकारी स्तर पर ये आंकड़े प्रकाशित किए जाएं। कहने का मतलब है कि जब तक ‘दोहरी शिक्षा-व्यवस्था’ खत्म नहीं की जाती, तब तक मातृभाषा में शिक्षा देने का सपना हकीकत नहीं बन सकता।

हेमराज सिंह, टिप्पणीकार

निज भाषा से दूरी

हमारे गांव में अंग्रेजी को लेकर ऐसी दीवानगी है कि हिंदी के वाक्यों में जब तक अंग्रेजी शब्द न शामिल किए जाएं, मानो ज्ञान का पदार्पण ही नहीं होता है। झगड़े का तापमान भी अंग्रेजी के शब्दों की अधिकता से नापी जाती है। अब तो शराबबंदी है, वरना दूसरे पैग से ही अंग्रेजी मातृभाषा का स्थान पा लेती थी। मैथिली विषय के प्रोफेसर के घर अंग्रेजी का अखबार रोज आता है। आज इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ अमरनाथ झा की कही बात, जो कभी किसी ने सुनायी थी, याद आ रही है- झा साहेब जब किसी भाषा में बोलते थे, तो वह दूसरी भाषा के शब्द उसमें प्रयोग नहीं करते थे। एक बार हिंदी के एक प्रसिद्ध कथाकार ने उनसे अंग्रेजी मिश्रित हिंदी में बात की, झा साहेब ने तुरंत टोका- तुम हिंदी कम बोलते हो, अंग्रेजी कमजोर है क्या... वह कथाकार झेंप गए।

कुमुद सिंह, टिप्पणीकार

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