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विलुप्ति के कगार पर हैं फगुआ के पारंपरिक गीत

गांवों में फाग गीत गाने की पुरानी परंपरा अब धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। पहले महाशिवरात्रि के आसपास फाग गीतों की गूंज होती थी, लेकिन आज की युवा पीढ़ी टीवी की मनोरंजन संस्कृति की ओर बढ़ रही है। यह सब...

Newswrap हिन्दुस्तान, अररियाSun, 23 Feb 2025 12:26 AM
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विलुप्ति के कगार पर हैं फगुआ के पारंपरिक गीत

महीनों पहले से गांवों में लोग गाते थे फाग गीत आधुनिकता की दौर में पुरानी परंपरा तोड़ रही दम

रानीगंज, एक संवाददाता

एक दशक पहले तक महाशिवरात्रि नजदीक आते ही होली के गीत अवध में होली खेले रघुवीरा, राम के हाथ ढोलक भल सोहे लक्ष्मण हाथे मंजीरा, अवध में होली खेले रघुवीरा, जोगीरा सा रा रा, रा, रा, के स्वर से गांवों की गालियां गुंजायमान हो जाती थी। होली का त्योहार नजदीक आते ही कभी ढोलक की थाप व मंजीरों ( पीतल या कांसे की वाद्ययंत्र) के चारों ओर फाग गीत गुंजायमान होने लगते थे, लेकिन आधुनिकता के दौर में आज के समय में शहरी क्षेत्रों की कौन कहे अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह परंपरा लुप्त होने लगी है। एक दशक पूर्व तक माघ महीने से ही गांव में फागुनी आहट दिखने लगती थी, लेकिन आज के जमाने में फागुन माह में भी गांव फागुनी महफिलों से अछूते नजर आ रहे हैं। आज जहां पुष्प मंजरी, बसंत की अंगड़ाई, पछुआ हवा की सरसराहट फागुन का स्पष्ट संकेत दे रही है, लेकिन इस आधुनिकता की दौड़ में हमारी परंपराएं लगभग निढाल हो गई है। फागुन महीने में शहरों से लेकर गांवों तक में फाग गाने और ढोलक की थाप सुनने को आज लोगों के कान तरस रहे हैं। महाशिवरात्रि का पर्व आते-आते फाग गीतों की धूम मचती थी। ढोल मंजीरे व करताल की आवाजों के बीच फगुआ के गाने गूंजते थे। लेकिन आज भेदभाव व वैमनस्यता के चलते अब त्योहारों के भी कोई मायने नहीं रह गए हैं। खिरकिया निमाड़, मालवा, महाकौशल की मिश्रित परंपरा में रमता रहा है और यहां पर उसी परंपरा के अनुसार त्योहार भी मनाए जाते हैं, लेकिन अब धीरे-धीरे सिर्फ परंपराओं का निर्वाहन मात्र किया जा रहा है।

होली को लेकर क्या कहते हैं बुजुर्ग:

रानीगंज के दीवान टोला निवासी बुजुर्ग सुभाष सिंह, कहते हैं कि अब होली पर फाग गायन नहीं सुनाई देते हैं। वे कहते है कि टीवी की मनोरंजन संस्कृति के चलते जहां पुरानी परंपराएं दम तोड़ रही है। वहीं आज की युवा पीढ़ी पुरानी संस्कृतियों को सीखना नहीं चाहती है। यही कारण है कि होली के त्योहार पर फाग गायन अब धीरे-धीरे खत्म सा होता जा रहा है। होली के त्योहार पर फाग गायन का विशेष महत्व है।

फाग गायन संगीत की एक विशेष कला है। जिसमें रागों के साथ ताल का भी मेल होता है। जहां गांवों में लंगड़ी व अन्य प्रकार की फाग गायी जाती है। जब हमारा समाज अपनी संस्कृति को गाता था तो इसके लिए विधिवत सट्टा दिया जाता था। फगुआ गाने वाली मंडली बुक की जाती थी और वह लोग आकर के गाना गाते थे एक मंडली में सात से दस लोग हुआ करते थे और गांवों में ऐसी दर्जनों मंडलिया हुआ करती थी। जिनके जीविकोपार्जन का साधन मनोरंजन का यह आंचलिक गाना हुआ करता था। इनके गीतों में समाज और संस्कृति जिंदा रहती थी।

होली के पर्व पर फाग का विशेष महत्व:

होली के पर्व पर फाग का विशेष महत्व है, लेकिन अब यह फाग संस्कृति धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर है। पहले कभी चारों तरफ फगुआरों की टोलियां फाग गाती हुई निकलतीं थी। इसके अलावा जगह-जगह फाग की महफिलें भी सजतीं थी। लेकिन अब कुछ स्थानों पर सिर्फ परंपरा निभाई जा रही है। आज के समाज में विकास की गति काफी तेज हो चली है। लेकिन विकास का रंग तब तक अधूरा ही रहेगा जब तक हम अपनी मूल संस्कृति और धरोहर को अपने जीवन की डोर से पिरो कर नहीं रखेंगे। आने वाली पीढ़ी को शायद ही इस बात की जानकारी हो कि कुछ फगुआ होता था और उसके फनकार। होली अब टीवी के गानों में है, बस किसी भी राहगीर से यह बोलने की परम्परा खत्म हो गई है कि बुरा न मानो होली है। हालांकि विलुप्त होती इस सांस्कृतिक विरासत को रानीगंज क्षेत्र के पहुंसरा, काला बलुवा, मझुवा पूरब आदि पंचायतों के आदिवासी समुदाय के लोग आज भी संजोए हुए हैं।

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